श्रीमद्भागवत महापुराण भक्ति रस की अविरल धारा है। भगवान् श्री कृष्ण की भावना, उनकी विचारणा,उनके ध्यान में डूबना ही अमृत- रस- पान है।किन्तु यह भगवान् के अनुग्रह के बिना संभव नहीं। भगवान् के इसी अनुग्रह का, कृपा का स्वरूप है, श्रीमद्भागवत महापुराण।
भगवान् श्री कृष्ण की स्तुति अनेक भक्तों के द्वारा की गई है। भक्त ध्रुव के द्वारा, भक्त प्रह्लाद के द्वारा, गज के द्वारा(गजेन्द्र मोक्ष),पितामह भीष्म के द्वारा। किन्तु महारानी कुन्ती के द्वारा के द्वारा की गई स्तुति(Kunti Krishna Stuti ) सभी स्तुतियों से अलग है क्योंकि इसमें महारानी कुन्ती भगवान् श्री कृष्ण से दुःख मांगती हैं, यह अद्भुत है, किसी भक्त ने ऐसा नहीं मांगा। किसी ने राज्य मांगा, किसी ने मोक्ष मांगा, किसी ने भगवान् की सेना मांगी(दुर्योधन), किसी ने भगवान् को ही मांग लिया(अर्जुन)।
किन्तु महारानी कुन्ती(Kunti Krishna Stuti) कहती हैं- विपदः सन्तु नः शश्वत्तत्र तत्र जगद्गुरो।भवतो दर्शनं यत्स्यादपुनर्भवदर्शनम्।। हे जगद्गुरु! हमारे जीवन में हमेशा जहां-जहां हम जाएं, विपत्तियां आती रहें,जिससे आपके दर्शन हों और इस संसार का, भव का दर्शन नहीं हो, जन्म-मृत्यु के चक्र में नहीं पड़ना पड़े। महारानी कुन्ती के द्वारा की गई भगवान् श्री कृष्ण की भक्ति-भावित स्तुति (Kunti Krishna Stuti )श्रीमद्भागवत महापुराण के प्रथम स्कंध अध्याय आठ के श्लोक- १८ से ४३ तक में वर्णित है।
महारानी कुन्ती ने भगवान से दुःख की कामना इसलिए की थी क्योंकि जब तक मनुष्य के जीवन में दुःख नहीं होता वह ईश्वर को याद नहीं करता। यदि किसी व्यक्ति के जीवन में कष्ट होते हैं तो वह हर पल ईश्वर को याद करता रहता है।
इस लेख के माध्यम से हम कुंती द्वारा भगवान श्री कृष्ण की स्तुति को हिंदी अर्थ सहित आपके साथ साझा कर रहे हैं।
Kunti Krishna Stuti With Hindi Meaning-श्रीमद्भागवतपुराण कुंती कृत श्रीकृष्ण स्तुति
नमस्ये पुरुषं त्वद्यमीश्वरं प्रकृते: परम् ।
अलक्ष्यं सर्वभूतानामन्तर्बहिरवास्थितम् ॥१॥
कुन्ती ने कहा- हे प्रभो! आप सभी जीवों के बाहर और भीतर एक समान स्थित हैं, फिर भी इन्द्रियों और वृत्तियों से देखे नहीं जाते क्योंकि आप प्रकृति से परे आदिपुरुष परमेश्वर हैं, मैं आपको नमस्कार करती हूँ।।१।।
मायाजवनिकाच्छन्नमज्ञाधोक्षमव्ययम् ।
न लक्ष्यसे मूढदृशा नटो नाटयधरो यथा ॥२॥
इन्द्रियों के अन्तःप्रवृत्त होने पर जिनका ज्ञान होता है अथवा इन्द्रियों के ज्ञान के कारणभूत आप अपनी माया के परदे से अपने को ढंके रहते हैं।मैं अबोध नारी आप अविनाशी पुरुषोत्तम को कैसे जान सकती हूँ,हे लीलाधर! जैसे मूढ़ लोग वेश बदले हुए नट को प्रत्यक्ष देखकर भी नहीं पहचान सकते, वैसे ही आप दिखते हुए भी नहीं दिखते।।१९।।
(अधोक्षज- जिसका कभी नाश न होता हो या आप कभी क्षीण नहीं होते। और भगवान विष्णु कभी क्षीण नहीं होते , इसलिए इनको अधोक्षज भी कहते है।)
तथा परमहंसानां मुनीनाममलात्मनाम् ।
भक्तियोगविधानार्थं कथं पश्येम हि स्त्रिय: ॥३॥
आप शुद्ध हृदय वाले, विचारशील जीवन्मुक्त परमहंसो के हृदय में अपनी प्रेममयी भक्ति का सृजन करने के लिए अवतीर्ण हुए हैं। फिर हम अल्पबुद्धि स्त्रियाँ आपको कैसे पहचान सकती हैं।
कृष्णाय वासुदेवाय देवकीनन्दनाय च ।
नन्दगोपकुमाराय गोविन्दाय नमो नम: ॥४॥
आप श्रीकृष्ण, वासुदेव, देवकीनन्दन, नन्दगोप लाडले लाल गोविन्द को हमारा बारम्बार प्रणाम है।
नम: पङ्कजनाभाय नम: पङ्कजमालिने ।
नम: पङ्कजनेत्राय नमस्ते पङ्कजाङ्घ्रये ॥५॥
जिनकी नाभि से ब्रह्मा का जन्मस्थान कमल प्रकट हुआ है, जो सुन्दर कमलों की माला धारण करते हैं, जिनके नेत्र कमल के समान विशाल और कोमल हैं, जिनके चरमकमलों में कमल का चिह्न है, ऐसे श्रीकृष्ण को मेरा बार-बार नमस्कार है।
यथा हृषीकेश खलेन देवकी कंसेने रुद्धातिचिरं शुचार्पिता ।
विमोचिताहं च सहात्मजा विभो त्वयैव नाथेन मुहुर्विपद्गणात् ॥६॥
हृषीकेश! जैसे आपने दुष्ट कंस के द्वारा कैद की हुई और चिरकाल से शोकग्रस्त देवकी की रक्षा की थी, वैसे ही पुत्रों के साथ मेरी भी आपने बार-बार विपत्तियों से रक्षा की है। आप ही हमारे स्वामी हैं. आप सर्वशक्तिमान् हैं।
विषान्महाग्ने: पुरुषाददर्शनादसत्सभाया वनवासकृच्छ्रत: ।
मृधे मृधे sनेकमहारथास्त्रतो द्रौण्यस्त्रतश्चास्म हरे sभिसक्षिता: ॥७॥
श्रीकृष्ण! कहाँतक गिनाऊँ – विष से, लाक्षागृह की भयानक आग से, हिडिम्ब आदि राक्षसों की दृष्टि से, दुष्टों की द्यूत-सभा से, वनवास की विपत्तियों से और अनेक बार के युद्धों में अनेक महारथियों के शस्त्रास्त्रों से और अभी-अभी इस अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र से भी आपने ही हमारी रक्षा की है।
विपद: सन्तु ता: शश्वत्तत्र तत्र जगद्गुरो ।
भवतो दर्शनं यत्स्यादपुनर्भवदर्शनम् ॥८॥
जगद्गुरो! हमारे जीवन में सर्वदा पद-पदपर विपत्तियाँ आती रहें; क्योंकि विपत्तियों में ही निश्चितरूप से आपके दर्शन हुआ करते हैं और आपके दर्शन हो जानेपर फिर जन्म-मृत्यु के चक्कर (संसार)में नहीं आना पड़ता।
जन्मैश्वर्यश्रितश्रीभिरेधमानमद: पुमान् ।
नैवार्हत्यभिधातुं वै त्वामकिञ्चनगोचरम् ॥९॥
ऊँचे कुलमें जन्म, ऐश्वर्य, विद्या और सम्पत्ति के कारण जिसका घमंड बढ रहा है, वह मनुष्य तो आपका नाम भी नहीं ले सकता; क्योंकि आप तो उन लोगोंको दर्शन देते हैं, जो अकिंचन हैं।
नमो sकिञ्चनवित्ताय निवृत्तगुणवृत्तये ।
आत्मारामाय शान्ताय कैवल्यपतये नम: ॥१०॥
माया का प्रपञ्च आपका स्पर्श भी नहीं कर सकता। आप अपने-आपमें ही विहार करने वाले, परम शान्त-स्वरूप हैं। आप ही कैवल्य मोक्ष के अधिपति हैं. आपको मैं बार-बार नमस्कार करती हूँ।
मन्ये त्वां कालमीशानमनादिनिधनं विभुम् ।
समं चरन्तं सर्वत्र भूतानां यन्मिथ: कलि: ॥११॥
आपको अनादि, अनन्त, सर्वव्यापक, सब के नियन्ता, कालरूप, परमेश्वर समझती हूँ। संसारके समस्त पदार्थ और प्राणी आपस में टकराकर विषमता के कारण परस्पर विरुद्ध हो रहे हैं, परंतु आप सबमें समान रूप से विचर रहे हैं।
न वदे कश्चद्भगवंश्चिकीर्षितं तवेहमानस्य नृणां विडम्बनम् ।
न यस्य कश्चिद्दयितो sस्ति कहिर्चिद् द्वष्यश्च यस्मिन्विषमा मतिर्नृणाम् ॥१२॥
भगवन्! आप जब मनुष्योंकी-सी लीला करते हैं, तब आप क्या करना चाहते हैं – यह कोई नहीं जानता। आपका कभी कोई न प्रिय है और न अप्रिय। आपके सम्बन्धमें लोगोंकी बुद्धि ही विषम हुआ करती है।
जन्म कर्म च विश्वात्मन्नकस्याकर्तुरात्मन: ।
तिर्यङ्नृषिषु याद: स तदत्यन्तविडम्बनम् ॥१३॥
आप विश्व के आत्मा हैं, विश्वरूप हैं. न आप जन्म लेते हैं और न कर्म ही करते हैं। फिर भी पशु-पक्षी, मनुष्य, ऋषि, जलचर आदि में आप जन्म लेते हैं और उन योनियों के अनुरूप दिव्य कर्म भी करते हैं. यह आपकी लीला ही तो है।
गोप्याददे त्वयि कृतागसि दाम तावद्या ते दशाश्रुकलिलाञ्जनासम्भ्रमाक्षम् ।
वक्रं निनीय भयभावनया स्थितस्य सा मां विमोहयति भीरपि यद्बभेति ॥१४॥
जब बचपन में आपने दूध की मटकी फोड़कर यशोदा मैया को खिझा दिया था और उन्होंने आपको बाँधने के लिये हाथ में रस्सी ली थी, तब आपकी आँखों में आँसू छलक आये थे, काजल कपोलों पर बह चला था, नेत्र चञ्चल हो रहे थे और भय की भावना से आपने अपने मुख को नीचे की ओर झुका लिया था! आपकी उस दशा का – लीला-छबि का ध्यान करके मैं मोहित हो जाती हूँ। भला, जिससे भय भी भय मानता है, उसी की यह दशा।
केचिदाहुरजं जातं पुण्यश्लोकस्य कीर्तये ।
यदो: प्रियस्यान्ववाये मलयस्येव चन्दनम् ॥१५॥
आपने अजन्मा होकर भी जन्म क्यों लिया है, इसका कारण बतलाते हुए कोई-कोई महापुरुष यों कहते हैं कि जैसे मलयाचल की कीर्ति का विस्तार करने के लिये उसमें चन्दन प्रकट होता है, वैसे ही अपने प्रिय भक्त पुण्यश्लोक राजा यदु की कीर्ति का विस्तार करने के लिये ही आपने उनके वंश में अवतार ग्रहण किया है।
अपरे वसुदेवस्य देवक्यां याचितो sभ्यगात् ।
अजस्त्वमस्य क्षेमाय वधाय च सुरद्विषाम् ॥१८॥
दूसरे लोग यों कहते हैं कि वसुदेव और देवकी ने पूर्वजन्म में (सुतपा और पृश्नि के रूपमें) आपसे यही वरदान प्राप्त किया था इसीलिये आप अजन्मा होते हुए भी जगत् के कल्याण और दैत्यों के नाश के लिये उनके पुत्र बने हैं।
भारावतारणायान्ये भुवो नाव इवोदधौ ।
सीदन्त्या भूरिभारेण जातो ह्यात्मभुवार्थित: ॥१९॥
कुछ और लोग यों कहते हैं कि यह पृथ्वी दैत्यों के अत्यन्त भार से समुद्र में डूबते हुए जहाज की तरह डगमगा रही थी पीड़ित हो रही थी, तब ब्रह्मा की प्रार्थना से उसका भार उतारने के लिये आप प्रकट हुए।
भवेष्मिन् क्लिष्यमानानामविद्याकामकर्मभिः।
श्रवण स्मरणार्हाणि करिष्यन्निति केच ॥२०॥
कोई महापुरुष यों कहते हैं कि जो लोग इस संसार में अज्ञान, कामना और कर्मोंके बन्धन में जकड़े हुए पीड़ित हो रहे हैं, उन लोगों के लिये श्रवण और स्मरण करने योग्य लीला करने के विचार से ही आपने अवतार ग्रहण किया है।
शृण्वन्ति गायन्ति गृणन्त्यभीक्ष्णश: स्मरन्ति नन्दन्ति तवेहितं जना: ।
त एव पश्यन्त्यचिरेण तावकं भवप्रवाहोपरमं पदाम्बुजम् ॥२१॥
भक्तजन बार-बार आपके चरित्र का श्रवण, गान, कीर्तन एवं स्मरण करके आनन्दित होते रहते हैं, वे ही अविलम्ब आपके उस चरणकमल का दर्शन कर पाते हैं, जो जन्म-मृत्युके प्रवाह को सदा के लिये रोक देता है।
अप्यद्य नस्त्वं स्वकृतेहित प्रभो जिहाससि स्वित्सुहृदो sनुजीविन: ।
येषां न चान्यद्भवत: पदाम्बुजात्परायणं राजसु योजितांहसाम् ॥२२॥
भक्तवाञ्छाकल्पतरु प्रभो!! क्या अब आप अपने आश्रित और सम्बन्धी हम लोगों को छोड़कर जाना चाहते हैं? क्या आप जानते हैं कि आपके चरणकमलों के अतिरिक्त हमें और किसी का सहारा नहीं है। पृथ्वी के राजाओं के तो हम यों ही विरोधी हो गये हैं।
के वयं नामरूपाभ्यां यदुभि: सह पाण्डवा: ।
भवतो sदर्शनं यर्हि हृषीकाणामिवेशितु: ॥२३॥
जैसे जीव के बिना इन्द्रियाँ शक्तिहीन हो जाती हैं, वैसे ही आपके दर्शन बिना यदुवंशियों के और हमारे पुत्र पाण्डवों के नाम तथा रूप का अस्तित्व ही क्या रह जाता है।
नेयं शोभिष्यते तत्र यथेदानीं गदाधर ।
त्वत्पदैरङ्किता भाति स्वलक्षणविलक्षितै: ॥२४॥
गदाधर! आपके विलक्षण चरणचिह्नों से चिह्नित यह कुरुजाङ्गल-देशकी भूमि आज जैसी शोभायमान हो रही है, वैसी आपके चले जाने के बाद न रहेगी।
इमे जनपदा: स्वृद्धा: सुपक्वौषधिवीरुध: ।
वनाद्रिनद्युदन्वन्तो ह्येधन्ते तव वीक्षितै: ॥२५॥
आपकी दृष्टि के प्रभाव से ही यह देश पकी हुई फसल तथा लता-वृक्षों से समृद्ध हो रहा है. ये वन, पर्वत, नदी और समुद्र भी आपकी दृष्टि से ही वृद्धि को प्राप्त हो रहे हैं।
अथ विश्वेश विश्वात्मन्विश्वमूर्ते स्वकेषु मे ।
स्नेहपाशमिमं छिन्धि दृढं पाण्डुषु वृष्णषु ॥२६॥
आप विश्व के स्वामी हैं, विश्वके आत्मा हैं और विश्वरूप हैं। यदुवंशियों और पाण्डवों में मेरी बड़ी ममता हो गयी है। आप कृपा करके स्वजनों के साथ जोड़े हुए इस स्नेह की दृढ फाँसी को काट दीजिये।
त्वयि मे sनन्यविष्या मतिर्मधुपते sसकृत् ।
रतिमुद्वहतादद्धा गङ्गेवौघमुदन्वति ॥२७॥
श्रीकृष्ण! जैसे गङ्गाकी अखण्ड धारा समुद्र में गिरती रहती है, वैसे ही मेरी बुद्धि किसी दूसरे ओर न जाकर आपसे निरन्तर प्रेम करती रहे।
श्रीकृष्ण कृष्णसख वृष्ण्यृषभावनिध्रुग्राजन्यवंशदहनानपवर्गवीर्य ।
गोविन्द गोद्विजसुरार्तिहरावतार योगेश्वराखिलगुरो भगवन्नमस्ते ॥२८॥
श्रीकृष्ण! अर्जुन प्यारे सखा यदुवंशशिरोमणे! आप पृथ्वीके भाररूप राजवेशधारी दैत्योंको जलानेके लिये अग्निरूप हैं. आपकी शक्ति अनन्त है। गोविन्द! आपका यह अवतार गौ, ब्राह्मण और देवताओंका दुःख मिटानेके लिये ही है. योगेश्वर!चराचरके गुरु भगवन्! मैं आपको नमस्कार करती हूँ।
🙏🙏🙏 🕉️ नमो भगवते वासुदेवाय 🙏🙏🙏
Very nice presentation.
🙏🙏🙏 🕉️ नमो भगवते वासुदेवाय 🙏🙏🙏
I am very eagerly waiting for Prahlad krit bhagwat stuti ” Namaste Pundarikaksha namaste purushottam”(28 shlokas). If it’s not available I can send. Please post it as soon as possible.
Thanks.
🙏🙏🙏 श्री राधा कृष्णाये नमः।🙏🙏🙏