Jyotish Shastra(Astrology)
सामान्यतः आकाश में स्थित ग्रह ,नक्षत्र आदि की गति , स्थिति एवं मानव और पृथ्वी पर उसके प्रभाव आदि अध्यनन जिस शास्त्र के अंतर्गत करते हैं उसे ज्योतिष शास्त्र(Jyotish Shastra) कहते हैं।
- Jyotish Shastra(Astrology) -ज्योतिष शास्त्र
- Vedon ke Ang-वेदों के अंग
- Vidvano Dwara Jyotish Shastra ki Paribhasha-विद्वानों के अनुसार ज्योतिष शास्त्र की परिभाषा
- Jyotish Shastra Pravartak-ज्योतिषशास्त्र के प्रवर्तक
- Jyotish Shastra ke Skandh(Parts)-ज्योतिष शास्त्र के भाग(स्कन्ध)
- Jyotish Shastra Ka Mahatva-ज्योतिष शास्त्र की उपयोगिता
- Jyotish Shastra Me Karma Siddhantha-ज्योतिष शास्त्र में कर्म सिद्धांत
- Karmo ke Prakar-कर्मों के प्रकार
- Jyotish Shastra: Mahatvpoorn Paribhashaye-ज्योतिष शास्त्र से सम्बंधित महत्वपूर्ण परिभाषाएं
- Reference Books-संदर्भ पुस्तकें
Jyotish Shastra(Astrology) -ज्योतिष शास्त्र
जिस शास्त्र में सूर्यादि नवग्रहों(वैदिक ज्योतिष में सूर्य,चन्द्रमा,बुध,शुक्र,मंगल ,बृहस्पति,शनि,राहु और केतु को नव ग्रहों के अंतर्गत रखा जाता है।) की गति,स्थिति सम्बन्धी समस्त नियम एवं भौतिक पदार्थों के ऊपर उनके प्रभाव का अध्ययन किया जाता है उसे ज्योतिष शास्त्र कहते है।
ज्योतिषशास्त्र को कालविधान शास्त्र भी कहा जाता है क्योंकि काल का निरूपण भी ज्योतिष शास्त्र के द्वारा होता है।ऋषियों द्वारा यज्ञ आदि कर्मों के काल निर्धारण हेतु ज्योतिष शास्त्र का प्रयोग किया जाता था। काल के सम्बन्ध में उक्ति है “कालाधीहीनं जगत सर्वं।” अर्थात सारा जगत काल के अधीन है।
“कालः सृजति भूतानि कालः संहरते प्रजाः।” जिसका अर्थ है काल ही समस्त जीवों की सृष्टि करता है और वही उनका संहार करता है। इन उक्तियों से काल की महत्ता पता चलती है।
संक्षिप्त रूप में कहा जा सकता है कि-“ग्रह गणितं ज्योतिषं ” अर्थात ज्योतिष शास्त्र ग्रहों का गणित है।
ज्योतिष शास्त्र को वेदों का अंग होने के कारण वेदांग भी कहा जाता है।
Vedon ke Ang-वेदों के अंग
वेदों के छः अंग है-शिक्षा, कल्प, व्याकरण ,निरुक्त ,छंद एवं ज्योतिष।
1.Siksha-शिक्षा
वैदिक मंत्रों के शुद्ध उच्चरण हेतु इसकी रचना हुई। अतः शिक्षा का मुख्य उद्देश्य वेदों का विशुद्ध उच्चारण है।इसे वेदों की नासिका कहा गया है।
2.Vyakaran-व्याकरण
वेदों में प्रयुक्त हुई संस्कृत का व्याकरण। इसमें पाणिनि व्याकरण ही वेदांग का प्रतिनिधित्व करता है। व्याकरण को वेदों का मुख कहा जाता है।
3.Nirukt–निरुक्त
इसमें वैदिक साहित्य में प्रयुक्त कठिन शब्दों की व्युत्पत्ति मिलती है। निरुक्त को वेदों का कान कहा गया है।
4.Kalp–कल्प
वैदिक साहित्य में प्रयुक्त विभिन्न प्रकार के कर्मकांडों के बारे में बताया गया है। वेदों के किस मंत्र का प्रयोग किस हेतु किया जाना चाहिए। इसे वेदों का हाथ कहा गया है।
5.Chhand–छंद
वैदिक साहित्य में प्रयुक्त हुए छंदों के विषय में वर्णन है। इसे वेदों का पैर कहा गया है।
6.Jyotish-ज्योतिष
इसमे ग्रह नक्षत्रों के शुभाशुभ प्रभावों के विषय में वर्णन है। ज्योतिष शास्त्र को वेदों की आँख कहा गया है।
Vidvano Dwara Jyotish Shastra ki Paribhasha-विद्वानों के अनुसार ज्योतिष शास्त्र की परिभाषा
आचार्य वराहिमिहर ने लघुजातक में लिखा है
यदुपचितमन्यजन्मनि शुभाऽशुभं तस्य कर्मणः पंक्तिम्।
व्यञ्जयति शास्त्रमेतत् तमसि द्रव्याणि दीप इव।।
ज्योतिषशास्त्र जातक के जन्म-जन्मांतर में किए गए शुभ-अशुभ कर्मों को उसी प्रकार प्रदर्शित करता है जैसे दीप अंधकार में स्थित पदार्थों का बोध करवाता है। पूर्व जन्म के कर्मों के अनुसार ही मनुष्य का जन्म ,उसकी प्रवत्तियाँ तथा उसके भाग्य का निर्माण होता है।
आचार्य भास्करचार्य द्वारा रचित ग्रन्थ सिद्धांत शिरोमणि के अनुसार
वेदस्य निर्मलं चक्षु ज्योतिषशास्त्रमकल्मषं।
विनैतदखिलं श्रौतं स्मार्तं कर्मं न सिद्धयति।।
ज्योतिषशास्त्र वेद का निर्मल चक्षु है जो दोषरहित है और इसके ज्ञानभाव में समस्त वेदप्रतिपाद्य विषय यथा श्रौत ,स्मार्त यज्ञ आदि क्रिया की सिद्धि नहीं हो सकती।
वर्तमान की घटनाओं को तो हम अपने नेत्रों द्वारा देख सकते हैं परन्तु भूत और भविष्य की घटनाओं को देखने के लिए ज्योतिष शास्त्र रूपी चक्षु की आवश्यकता होती है।
ब्रह्माण्ड में जितने भी जीव है उनमें पञ्च महाभूत (पृथ्वी ,अग्नि,जल,वायु ,आकाश ), तीन गुण (सत्व,रजस और तम), सात प्रकार की धातुएं आदि ग्रह नक्षत्र के प्रभाव से रहते हैं। इसी वजह से किसी व्यक्ति में पृथ्वी तत्व की अधिकता होती है तो किसी में अग्नि तत्त्व की। इन्ही सब कारणों से किसी व्यक्ति के केश ज्यादा होते है तो किसी के कम।
Jyotish Shastra Pravartak-ज्योतिषशास्त्र के प्रवर्तक
सर्वप्रथम ब्रह्मा द्वारा ज्योतिष शास्त्र की उत्पत्ति हुई। तत्पश्चात ब्रह्माजी द्वारा यह ज्ञान देवऋषि नारद को प्रदान किया गया। इसी प्रकार चन्द्रमा ने शौनक को,नारायण ने वशिष्ठ एवं रोमक को ,वशिष्ठ ने माण्डव्य को तथा सूर्य ने मय को ज्योतिष का ज्ञान दिया था।
इस प्रकार ज्योतिष के अठारह प्रवर्तक माने जाते हैं।
सूर्य ,पितामह,वेदव्यास,वसिष्ठ,अत्रि ,पराशर ,कश्यप,नारद,गर्ग,मरीचि,मनु ,अंगिरा ,लोमश ,पौलिश ,च्यवन ,यवन भृगु तथा शौनकादि अष्टादश महर्षियों को ज्योतिष शास्त्र का प्रवर्तक कहा जाता है।
Jyotish Shastra ke Skandh(Parts)-ज्योतिष शास्त्र के भाग(स्कन्ध)
ज्योतिष शास्त्र के मुख्य रूप से तीन स्कन्ध(parts) हैं
1)सिद्धांत 2)संहिता 3)होरा या फलित
Siddhantha-सिद्धांत
इसमें सूर्यादि भचक्र एवं नक्षत्र आदि की स्थिति निश्चित करने का तरीका बताया गया है और उनकी गति में कैसे-कैसे परिवर्तन होते रहते हैं यह बताया गया है यह खगोल विद्या की शिक्षा देते हैं इसमें पांच सिद्धांत प्रचलित है-
- सूर्य सिद्धांत
- रोमक सिद्धांत
- पौलिश सिद्धांत
- वशिष्ठ सिद्धांत
- पितामह सिद्धांत
इन्हीं सिद्धांतों के आधार पर कुछ सुधार करके सारे पंचांग, पत्रे, जन्त्री आदि बनाए जाते हैं।
Hora-होरा
आरम्भ में होरा शब्द अहोरात्र था। जिसका अर्थ है रात-दिन ।इसमें से अ वर्ण और अंतिम त्र वर्ण निकाले जाने से होरा रह गया जिसका तात्पर्य है समय की गणना करना।
होरा के अन्तर्गत किसी व्यक्ति की जन्मतिथि, जन्म समय और जन्मस्थान के आधार पर उसकी जन्म कुण्डली बनाकर उसके जीवन की घटनाओं की गणना की जाती है।
उस व्यक्ति का स्वभाव कैसा होगा उसकी विशेषताएं क्या है उसका परिवार कैसा हो , नौकरी ,धन इत्यादि कैसा होगा ,स्वास्थ्य कैसा रहेगा इत्यादि जीवन के हर पहलु को जाना जा सकता है।
Sanhita-संहिता
यह नक्षत्रों की स्थिति एवं उनमें होने वाले परिवर्तन तथा उनका मौसम,वस्तुओं, खेती की उपज,महामारी,आँधी-तूफान,भूचाल,राजनैतिक परिवर्तन आदि से सम्बंधित है।
उपर्युक्त तीन विषयों के अतिरिक्त आजकल ज्योतिषशास्त्र के साथ प्रश्न और शकुन ये दो विषय और जुड़ गए हैं।
प्रश्नशास्त्र में जब कोई व्यक्ति प्रश्न लेकर आता है उस समय की कुंडली बनाकर उस व्यक्ति के प्रश्नों का उत्तर दिया जाता है।
शकुन शास्त्र में शुभ अशुभ शकुन के अनुसार परिणाम बताया जाता है।
Jyotish Shastra Ka Mahatva-ज्योतिष शास्त्र की उपयोगिता
ज्योतिष शास्त्र की मानव जीवन में बहुत उपयोगिता है। ज्योतिष शास्त्र का उपयोग करके न केवल हम अपने भविष्य को जान सकते हैं अपतु उसे बेहतर भी बना सकते हैं। ज्योतिष शास्त्र का उपयोग निम्न क्षेत्रों में बहुत होता है।
- गर्भ निर्धारण
- आयु निर्धारण
- नामकरण,विद्यारम्भ आदि अनेक संस्कारों में
- विवाह,संतानोत्पत्ति
- आजीविका में
- चिकित्सा में
- यात्रा में
- गृह निर्माण /गृह प्रवेश
- वास्तु सम्बन्धी विचार
- पर्यावरण ,कृषि ,प्राकृतिक आपदा,वैश्विक स्थिति
Jyotish Shastra Me Karma Siddhantha-ज्योतिष शास्त्र में कर्म सिद्धांत
ज्योतिष शास्त्र कर्म सिद्धांत पर आधारित है जिसका तात्पर्य व्यक्ति को जन्म उसके कर्मानुसार मिलता है। उसी के अनुसार वो जन्म कुण्डली लेकर पैदा होता है।
कर्म सिद्धांत के तीन स्तम्भ हैं
1)पुनर्जन्म
2)कर्मयोनि मनुष्य कर्म से बच नहीं सकता।
3)कर्म का प्रतिफल। मनुष्य चाहे अच्छे कर्म करे या बुरे उसे उसके फल भोगने ही पड़ते हैं और उन कर्मों का फल भोगने के लिए बार-बार जन्म लेना पड़ता है।
Karmo ke Prakar-कर्मों के प्रकार
कर्मों का तीन प्रकार से वर्गीकरण किया गया है-
प्रारब्ध, संचित और आगामी(क्रियमान)
Sanchit-संचित
संचित वह कर्म हैं जिन्हें हम पहले ही कर चुके हैं और वर्तमान में उनके फलों की प्राप्ति का इंतजार कर रहे हैं।
Prarabdha-प्रारब्ध
प्रारब्ध वह कर्म हैं जिनको करने के लिए हम वर्तमान जीवन में प्रेरित रहते हैं अर्थात इनको करने की इच्छा रहती है। यहाँ हमें यह स्वतंत्रता रहती है कि हम अच्छे कर्म करें या बुरे। कोई व्यक्ति अपनी कुंडली के ढाँचे से ऊपर उठकर अच्छे कर्म करके अपने को जीवन में ऊपर उठा सकता है साथ ही बुरे कर्म करके पतन की ओर भी जा सकता है।
Kriyamana Karma-क्रियमाण कर्म
आगामी वे कर्म हैं जो अभी विचार किये जा रहे हैं और भविष्य में किये जायेंगे।
इसी प्रकार से कर्म दृढ़ ,अदृढ़ और दृढ़-अदृढ़ भी होते हैं।
Jyotish Shastra: Mahatvpoorn Paribhashaye-ज्योतिष शास्त्र से सम्बंधित महत्वपूर्ण परिभाषाएं
Grah/Planet–ग्रह
गचतीति ग्रह। अर्थात वह आकाशीय पिण्ड जिसमें गति हो और जो चलायमान हो उसे ग्रह कहते हैं। ज्योतिष शास्त्र में सूर्य, चन्द्रमा, बुध, शुक्र, मंगल, बृहस्पति, शनि, राहु और केतु नौ गृहों को मुख्यतः लिया जाता है। राहु केतु को छोड़कर बाकि सात ग्रह सपिंड ग्रह हैं जबकि राहु केतु छाया ग्रह हैं।
Nakshtra-नक्षत्र
न क्षारतीति नक्षत्रं। आकाश में स्थित वह पिण्ड जो चलता नहीं है वह नक्षत्र कहलाता है। या तारों के समूह को नक्षत्र कहते हैं। नक्षत्रों की संख्या 27 है। प्रत्येक ग्रह को तीन नक्षत्रों का स्वामित्व प्राप्त होता है।
Bhachakra/Zodiac-भचक्र
भारतीय ज्योतिष में पृथ्वी को ही सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का केंद्र मन गया है। इसलिए ही सूर्य का काल्पनिक परिक्रमा पथ जो वस्तुतः पृथ्वी का सूर्य की परिक्रमा का पथ है क्रांतिवृत्त कहलाता है।
इसी 360° के क्रांतिवृत्त के दोनों ओर 9-9 अंश विस्तार की कुल 18 अंश की पट्टी है जिसे भचक्र कहते हैं।
इसी पट्टी में सभी ग्रह स्थित हैं। इस भचक्र को 30 अंश के द्वादश (बारह) समान भागों में विभक्त किया गया है प्रत्येक 30 अंश एक राशि कहलाता है। इनका नामकरण उसमें स्थित प्रसिद्ध तारामंडल के आधार पर किया गया है।
भचक्र अपनी धुरी पर दिन में एक बार पूर्व से पश्चिम की ओर घूम जाता है। ऐसा पृथ्वी का अपनी धुरी पर 24 घंटे में एक बार घूमने के कारण प्रतीत होता है।
Rashiyan/Zodiac Signs-राशियां
भचक्र में कुल बारह राशियां हैं
- मेष (Aries) 0°-30°
- वृषभ (Taurus) 30°-60°
- मिथुन (Gemini) 60°-90°
- कर्क(Cancer) 90°-120°
- सिंह (Leo)120°-150°
- कन्या (Virgo) 150°-180°
- तुला (Libra) 180°-210°
- वृश्चिक (Scorpion) 210°-240°
- धनु (Sagittarius) 240°-270°
- मकर(Capricorn) 270°-300°
- कुम्भ(Aquarius) 300-330
- मीन(Pisces) 330-360
Reference Books-संदर्भ पुस्तकें
- Brihat Parashara Hora Shastra –बृहत पराशर होराशास्त्र
- Phaldeepika (Bhavartha Bodhini)–फलदीपिका
- Saravali–सारावली