गणपति अथर्वशीर्ष(ganpati atharvashirsha) एक संस्कृत पाठ और हिंदू धर्म का एक लघु उपनिषद है। यह उपनिषद का पाठ है जो गणेश को समर्पित है, जो बुद्धि और शिक्षा का प्रतिनिधित्व करने वाले देवता हैं।
गणेश अथर्वशीर्ष(Ganpati Atharvashirsha) के अनुसार गणेश शाश्वत अंतर्निहित वास्तविकता, ब्रह्म के समान हैं। इसका पाठ अथर्ववेद से जुड़ा हुआ है, और इसे श्री गणपति अथर्वशीर्ष, गणपति अथर्वशीर्ष, या गणपति उपनिषद के रूप में भी जाना जाता है।
Ganpati Atharvashirsha Path-गणपति अथर्वशीर्ष पाठ
॥ शान्ति पाठ ॥
ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा ।भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ॥
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवांसस्तनूभिः । व्यशेम देवहितं यदायुः ॥
ॐ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः ।स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ॥
स्वस्तिनस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः ।स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥
ॐ शांतिः । शांतिः ॥ शांतिः ॥
॥ उपनिषत् ॥
ॐ नमस्ते गणपतये ॥ त्वमेव प्रत्यक्षं तत्वमसि ॥ त्वमेव केवलं कर्तासि ॥ त्वमेव केवलं धर्तासि ॥ त्वमेव केवलं हर्तासि ॥ त्वमेव सर्वं खल्विदं ब्रह्मासि ॥ त्वं साक्षादात्मासि नित्यम् ॥१॥
॥ स्वरूप तत्त्व ॥
ऋतम् वच्मि ॥ सत्यं वच्मि ॥ २॥
अव त्वं माम् ॥ अव वक्तारम् ॥ अव श्रोतारम् ॥ अव दातारम् ॥ अव धातारम् ॥ अवानूचानमव शिष्यम् ॥ अव पश्चात्तात् ॥ अव पुरस्तात् ॥ अवोत्तरात्तात् ॥ अव दक्षिणात्तात् ॥ अव चोर्ध्वात्तात् ॥ अवाधरात्तात् ॥ सर्वतो मां पाहि पाहि समन्तात् ॥३॥
त्वं वाङ्मयस्त्वं चिन्मयः ॥ त्वमानंदमयस्त्वं ब्रह्ममयः ॥ त्वं सच्चिदानंदाद्वितीयोऽसि। त्वं प्रत्यक्षं ब्रह्मासि। त्वं ज्ञानमयो विज्ञानमयोऽसि ॥४॥
सर्वं जगदिदं त्वत्तो जायते ॥ सर्वं जगदिदं त्वत्तस्तिष्ठति ॥ सर्वं जगदिदं त्वयि लयमेष्यति ॥ सर्वं जगदिदं त्वयि प्रत्येति ॥ त्वं भूमिरापोऽनलोऽनिलो नभः ॥ त्वं चत्वारि वाक्पदानि ॥५॥
त्वं गुणत्रयातीतः। त्वं अवस्थात्रयातीतः। त्वं देहत्रयातीतः। त्वं कालत्रयातीतः। त्वं मूलाधारस्थितोऽसि नित्यम् ॥
त्वं शक्तित्रयात्मकः। त्वां योगिनो ध्यायन्ति नित्यम् ॥
त्वं ब्रहमा त्वं विष्णुस्त्वं रुद्रस्त्वं इन्द्रस्त्वं अग्निस्त्वं वायुस्त्वं सूर्यस्त्वं चंद्रमास्त्वं ब्रह्मभूर्भुवः स्वरोम् ॥६॥
॥ गणेश मंत्र ॥
गणादिं पूर्वमुच्चार्य वर्णादिं तदनंतरम् ॥तदनंतरम्अनुस्वारः परतरः ॥ अर्धेन्दुलसितम् ॥ तारेण ऋद्धम् ॥
एतत्तव मनुस्वरूपम् ॥ गकारः पूर्वरूपम् ॥अकारो मध्यमरूपम् ॥ अनुस्वारश्चान्त्यरूपम् ॥
बिन्दुरुत्तररूपम् ॥ नादः संधानम् ॥संहितासंधिः ॥ सैषा गणेशविद्या ॥
गणकऋषिः ॥ निचृद्गायत्रीच्छंदः ॥गणपतिर्देवता ॥ ॐ गं गणपतये नमः ॥ ७॥
॥ गणेश गायत्री ॥
एकदंताय विद्महे । वक्रतुण्डाय धीमहि ॥ तन्नो दंतिः प्रचोदयात् ॥प्रचोदयात् ॥८॥
॥ गणेश रूप ॥
एकदंतं चतुर्हस्तं पाशमंकुशधारिणम् ॥ रदं च वरदं हस्तैर्बिभ्राणं मूषकध्वजम् ॥ रक्तं लंबोदरं शूर्पकर्णकं रक्तवाससम् ॥ रक्तगंधानुलिप्तांगं रक्तपुष्पैः सुपूजितम् ॥भक्तानुकंपिनं देवं जगत्कारणमच्युतम् ॥ आविर्भूतं च सृष्ट्यादौ प्रकृतेः पुरुषात्परम् ॥ एवं ध्यायति यो नित्यं स योगी योगिनां वरः ॥ ९॥
॥ अष्ट नाम गणपति ॥
नमो व्रातपतये नमो गणपतये नमः प्रमथपतये नमस्तेऽस्तु लम्बोदरायैकदन्ताय
विघ्ननाशिने शिवसुताय श्रीवरदमूर्तये नमो नमः ॥ १० ॥
फलश्रुति
एतदथर्वशीर्षम् योऽधीते ॥ स ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥ स सर्वविघ्नैर्न बाध्यते ॥ स सर्वतः सुखमेधते ॥
स पंचमहापापात्प्रमुच्यते ॥ सायमधीयानो दिवसकृतम् पापान् नाशयति ॥ प्रातरधीयानो रात्रिकृतम् पापान् नाशयति ॥
सायं प्रातः प्रयुंजानो अपापो भवति ॥ सर्वत्राधीयानोऽपविघ्नो भवति। धर्मार्थकाममोक्षं च विंदति ॥
इदम् अथर्वशीर्षम् अशिष्याय न देयम्॥ यो यदि मोहाद्दास्यति ॥
स पापीयान् भवति ॥ सहस्रावर्तनात् यं यं काममधीते तं तमनेन साधयेत्॥११॥
अनेन गणपतिम् अभिषिंचति ॥ स वाग्मी भवति ॥ चतुर्थ्यामनश्नंजपति ॥ स विद्यावान्भवति ॥ इत्यथर्वणवाक्यम्॥ ब्रह्माद्यावरणं विद्यात्॥ न बिभेति कदाचनेति ॥ १२ ॥
यो दूर्वांकुरैर्यजति ॥ स वैश्रवणोपमो भवति ॥ यो लाजैर्यजति ॥ स यशोवान्भवति ॥ स मेधावान्भवति ॥ यो मोदकसहस्रेण यजति ॥ स वांछितफलमवाप्नोति ॥यः साज्यसमिद्भिर्यजति ॥ स सर्वम् लभते स सर्वम् लभते ॥१३॥
अष्टौ ब्राह्मणान् सम्यग्राहयित्वा ॥ सूर्यवर्चस्वी भवति ॥ सूर्यग्रहे महानद्यां प्रतिमासंनिधौ वा जप्त्वा सिद्धमन्त्रो भवति ॥ महाविघ्नात्प्रमुच्यते। महादोषात्प्रमुच्यते ॥ महापापात्प्रमुच्यते ॥ स सर्वविद्भवति स सर्वविद्भवति ॥ य एवं वेद इत्युपनिषत् ॥ १४॥
Ganpati Atharvashirsha Meaning In Hindi-गणपति अथर्वशीर्ष का हिन्दी अर्थ
ॐ नमस्ते गणपतये ॥ त्वमेव प्रत्यक्षं तत्वमसि ॥ त्वमेव केवलं कर्तासि ॥ त्वमेव केवलं धर्तासि ॥ त्वमेव केवलं हर्तासि ॥ त्वमेव सर्वं खल्विदं ब्रह्मासि ॥ त्वं साक्षादात्मासि नित्यम् ॥१॥
गणपति को नमस्कार है, तुम्हीं प्रत्यक्ष तत्त्व हो, तुम्हीं केवल कर्त्ता, तुम्हीं केवल धारणकर्ता और तुम्हीं केवल संहारकर्ता हो, तुम्हीं केवल समस्त विश्वरुप ब्रह्म हो और तुम्हीं साक्षात् नित्य आत्मा हो। ॥ १॥
॥ स्वरूप तत्त्व ॥
ऋतम् वच्मि ॥ सत्यं वच्मि ॥ २॥
यथार्थ कहता हूँ। सत्य कहता हूँ। ॥ २॥
अव त्वं माम् ॥ अव वक्तारम् ॥ अव श्रोतारम् ॥ अव दातारम् ॥ अव धातारम् ॥ अवानूचानमव शिष्यम् ॥ अव पश्चात्तात् ॥ अव पुरस्तात् ॥ अवोत्तरात्तात् ॥ अव दक्षिणात्तात् ॥ अव चोर्ध्वात्तात् ॥ अवाधरात्तात् ॥ सर्वतो मां पाहि पाहि समन्तात् ॥३॥
तुम मेरी रक्षा करो। वक्ता की रक्षा करो। श्रोता की रक्षा करो। दाता की रक्षा करो। धाता की रक्षा करो। षडंग वेदविद् आचार्य की रक्षा करो। शिष्य रक्षा करो। पीछे से रक्षा करो। आगे से रक्षा करो। उत्तर (वाम भाग) की रक्षा करो। दक्षिण भाग की रक्षा करो। ऊपर से रक्षा करो। नीचे की ओर से रक्षा करो। सर्वतोभाव से मेरी रक्षा करो। सब दिशाओं से मेरी रक्षा करो। ॥ ३॥
त्वं वाङ्मयस्त्वं चिन्मयः ॥ त्वमानंदमयस्त्वं ब्रह्ममयः ॥ त्वं सच्चिदानंदाद्वितीयोऽसि। त्वं प्रत्यक्षं ब्रह्मासि। त्वं ज्ञानमयो विज्ञानमयोऽसि ॥४॥
तुम वाङ्मय हो, तुम चिन्मय हो। तुम आनन्दमय हो। तुम ब्रह्ममय हो। तुम सच्चिदानन्द अद्वितीय परमात्मा हो। तुम प्रत्यक्ष ब्रह्म हो। तुम ज्ञानमय हो, विज्ञानमय हो। ॥ ४॥
सर्वं जगदिदं त्वत्तो जायते ॥ सर्वं जगदिदं त्वत्तस्तिष्ठति ॥ सर्वं जगदिदं त्वयि लयमेष्यति ॥ सर्वं जगदिदं त्वयि प्रत्येति ॥ त्वं भूमिरापोऽनलोऽनिलो नभः ॥ त्वं चत्वारि वाक्पदानि ॥५॥
यह सारा जगत् तुमसे उत्पन्न होता है। यह सारा जगत् तुमसे सुरक्षित रहता है। यह सारा जगत् तुममें लीन होता है। यह अखिल विश्व तुममें ही प्रतीत होता है। तुम्हीं भूमि, जल, अग्नि और आकाश हो। तुम्हीं परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी चतुर्विध वाक् हो। ॥ ५॥
त्वं गुणत्रयातीतः। त्वं अवस्थात्रयातीतः। त्वं देहत्रयातीतः। त्वं कालत्रयातीतः। त्वं मूलाधारस्थितोऽसि नित्यम् ॥ त्वं शक्तित्रयात्मकः। त्वां योगिनो ध्यायन्ति नित्यम् ॥ त्वं ब्रहमा त्वं विष्णुस्त्वं रुद्रस्त्वं इन्द्रस्त्वं अग्निस्त्वं वायुस्त्वं सूर्यस्त्वं चंद्रमास्त्वं ब्रह्मभूर्भुवः स्वरोम् ॥६॥
तुम सत्त्व-रज-तम-इन तीनों गुणों से परे हो। तुम भूत-भविष्य-वर्तमान-इन तीनों कालों से परे हो। तुम स्थूल, सूक्ष्म और कारण- इन तीनों देहों से परे हो। तुम नित्य मूलाधार चक्र में स्थित हो। तुम प्रभु-शक्ति, उत्साह-शक्ति और मन्त्र-शक्ति- इन तीनों शक्तियों से संयुक्त हो। योगिजन नित्य तुम्हारा ध्यान करते हैं। तुम ब्रह्मा हो। तुम विष्णु हो। तुम रुद्र हो। तुम इन्द्र हो। तुम अग्नि हो। तुम वायु हो। तुम सूर्य हो। तुम चन्द्रमा हो। तुम (सगूण) ब्रह्म हो, तुम (निर्गुण) त्रिपाद भूः भुवः स्वः एवं प्रणव हो। ॥ ६॥
॥ गणेश मंत्र ॥
गणादिं पूर्वमुच्चार्य वर्णादिं तदनंतरम् ॥तदनंतरम् अनुस्वारः परतरः ॥ अर्धेन्दुलसितम् ॥ तारेण ऋद्धम् ॥
एतत्तव मनुस्वरूपम् ॥ गकारः पूर्वरूपम् ॥अकारो मध्यमरूपम् ॥अनुस्वारश्चान्त्यरूपम् ॥
बिन्दुरुत्तररूपम् ॥ नादः संधानम् ॥ संहितासंधिः ॥ सैषा गणेशविद्या ॥
गणकऋषिः ॥ निचृद्गायत्रीच्छंदः ॥ श्रीमहागणपतिर्देवता ॥ ॐ गं गणपतये नमः ॥ ७॥
‘गण’ शब्द के आदि अक्षर गकार का पहले उच्चारण करके अनन्तर आदिवर्ण अकार का उच्चारण करें। उसके बाद अनुस्वार रहे। इस प्रकार अर्धचन्द्र से पहले शोभित जो ‘गं’ है, वह ओंकार के द्वारा रुद्ध हो, अर्थात् उसके पहले और पीछे भी ओंकार हो। यही तुम्हारे मन्त्र का स्वरुप (ॐ गं ॐ) है। ‘गकार’ पूर्वरुप है, ‘अकार’ मध्यमरुप है, ‘अनुस्वार’ अन्त्य रूप है। ‘बिन्दु’ उत्तररुप है। ‘नाद’ संधान है। संहिता’ संधि है। ऐसी यह गणेशविद्या है। इस विद्या के गणक ऋषि हैं। निचृद् गायत्री छन्द है और गणपति देवता है। मन्त्र है- ‘ॐ गं गणपतये नमः” ॥ ७॥
॥ गणेश गायत्री ॥
एकदंताय विद्महे । वक्रतुण्डाय धीमहि ॥ तन्नो दंतिः प्रचोदयात् ॥प्रचोदयात् ॥ ८॥
एकदन्त को हम जानते हैं, वक्रतुण्ड का हम ध्यान करते हैं। दन्ती हमको उस ज्ञान और ध्यान में प्रेरित करें। ॥ ८॥
॥ गणेश रूप (ध्यान)॥
एकदंतं चतुर्हस्तं पाशमंकुशधारिणम् ॥ रदं च वरदं हस्तैर्बिभ्राणं मूषकध्वजम् ॥ रक्तं लंबोदरं शूर्पकर्णकं रक्तवाससम् ॥ रक्तगंधानुलिप्तांगं रक्तपुष्पैः सुपूजितम् ॥ भक्तानुकंपिनं देवं जगत्कारणमच्युतम् ॥ आविर्भूतं च सृष्ट्यादौ प्रकृतेः पुरुषात्परम् ॥ एवं ध्यायति यो नित्यं स योगी योगिनां वरः ॥ ९
गणपतिदेव एकदन्त और चर्तुबाहु हैं। वे अपने चार हाथों में पाश, अंकुश, दन्त और वरमुद्रा धारण करते हैं। उनके ध्वज में मूषक का चिह्न है। वे रक्तवर्ण, लम्बोदर, शूर्पकर्ण तथा रक्तवस्त्रधारी हैं। रक्तचन्दन के द्वारा उनके अंग अनुलिप्त हैं। वे रक्तवर्ण के पुष्पों द्वारा सुपूजित हैं। भक्तों की कामना पूर्ण करने वाले, ज्योतिर्मय, जगत् के कारण, अच्युत तथा प्रकृति और पुरुष से परे विद्यमान वे पुरुषोत्तम सृष्टि के आदि में आविर्भूत हुए। इनका जो इस प्रकार नित्य ध्यान करता है, वह योगी योगियों में श्रेष्ठ है। ॥ ९॥
॥ अष्ट नाम गणपति ॥
नमो व्रातपतये नमो गणपतये नमः प्रमथपतये नमस्तेऽस्तु लम्बोदरायैकदन्ताय विघ्ननाशिने शिवसुताय श्रीवरदमूर्तये नमो नमः ॥ १० ॥
व्रातपति, गणपति, प्रमथपति, लम्बोदर, एकदन्त, विघ्ननाशक, शिवतनय तथा वरदमूर्ति को नमस्कार है। ॥ १०॥
॥ फलश्रुति ॥
एतदथर्वशीर्षम् योऽधीते ॥ स ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥ स सर्वतः सुखमेधते ॥ स सर्वविघ्नैर्न बाध्यते ॥ स पंचमहापापात्प्रमुच्यते ॥ सायमधीयानो दिवसकृतम् पापान् नाशयति ॥ प्रातरधीयानो रात्रिकृतम् पापान् नाशयति ॥
सायं प्रातः प्रयुंजानो अपापो भवति ॥ सर्वत्राधीयानोऽपविघ्नो भवति। धर्मार्थकाममोक्षं च विंदति ॥इदम् अथर्वशीर्षम् अशिष्याय न देयम्॥ यो यदि मोहाद्दास्यति ॥ स पापीयान् भवति ॥ सहस्रावर्तनात् यं यं काममधीते तं तमनेन साधयेत् ॥११॥
इस अथर्वशीर्ष का जो पाठ करता है, वह ब्रह्मीभूत होता है, वह किसी प्रकार के विघ्नों से बाधित नहीं होता, वह सर्वतोभावेन सुखी होता है, वह पंच महापापों से मुक्त हो जाता है। सायंकाल इसका अध्ययन करनेवाला दिन में किये हुए पापों का नाश करता है, प्रातःकाल पाठ करनेवाला रात्रि में किये हुए पापों का नाश करता है। सायं और प्रातःकाल पाठ करने वाला निष्पाप हो जाता है।
(सदा) सर्वत्र पाठ करनेवाले सभी विघ्नों से मुक्त हो जाता है एवं धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष- इन चारों पुरुषार्थों को प्राप्त करता है। यह अथर्वशीर्ष इसको नहीं देना चाहिये, जो शिष्य न हो। जो मोहवश अशिष्य को उपदेश देगा, वह महापापी होगा। इसकी १००० आवृत्ति करने से उपासक जो कामना करेगा, इसके द्वारा उसे सिद्ध कर लेगा। ॥ ११॥
अनेन गणपतिम् अभिषिंचति ॥ स वाग्मी भवति ॥ चतुर्थ्यामनश्नंजपति ॥ स विद्यावान्भवति ॥ इत्यथर्वणवाक्यम्॥ ब्रह्माद्यावरणं विद्यात्॥ न बिभेति कदाचनेति ॥ १२ ॥
जो इस मन्त्र के द्वारा श्रीगणपति का अभिषेक करता है, वह वाग्मी हो जाता है। जो चतुर्थी तिथि में उपवास कर जप करता है, वह विद्यावान् हो जाता है। यह अथर्वण-वाक्य है। जो ब्रह्मादि आवरण को जानता है, वह कभी भयभीत नहीं होता। ॥ १२॥
यो दूर्वांकुरैर्यजति ॥ स वैश्रवणोपमो भवति ॥ यो लाजैर्यजति ॥ स यशोवान्भवति ॥ स मेधावान्भवति ॥ यो मोदकसहस्रेण यजति ॥ स वांछितफलमवाप्नोति ॥यः साज्यसमिद्भिर्यजति ॥ स सर्वम् लभते स सर्वम् लभते ॥१३॥
जो दुर्वांकुरों द्वारा यजन करता है, वह कुबेर के समान हो जाता है। जो लाजा के द्वारा यजन करता है, वह यशस्वी होता है, वह मेधावान होता है। जो सहस्त्र मोदकों के द्वारा यजन करता है, वह मनोवांछित फल प्राप्त करता है। जो घृताक्त समिधा के द्वारा हवन करता है, वह सब कुछ प्राप्त करता है, वह सब कुछ प्राप्त करता है। ॥ १३॥
अष्टौ ब्राह्मणान् सम्यग्राहयित्वा ॥ सूर्यवर्चस्वी भवति ॥ सूर्यग्रहे महानद्यां प्रतिमासंनिधौ वा जप्त्वा सिद्धमन्त्रो भवति ॥ महाविघ्नात्प्रमुच्यते। महादोषात्प्रमुच्यते ॥ महापापात्प्रमुच्यते ॥ स सर्वविद्भवति स सर्वविद्भवति ॥ य एवं वेद इत्युपनिषत् ॥१४॥
जो आठ ब्राह्मणों को इस उपनिषद् का सम्यक ग्रहण करा देता है, वह सूर्य के समान तेज-सम्पन्न होता है। सूर्यग्रहण के समय महानदी में अथवा प्रतिमा के निकट इस उपनिषद् का जप करके साधक सिद्धमन्त्र हो जाता है। सम्पूर्ण महाविघ्नों से मुक्त हो जाता है। महापापों से मुक्त हो जाता है। महादोषों से मुक्त हो जाता है। वह सर्वविद् हो जाता है। जो इस प्रकार जानता है-वह सर्वविद् हो जाता है। ॥ १४॥
Ganpati Atharvashirsha Path-गणपति अथर्वशीर्ष
Ganpati Atharvashirsha Path-गणपति अथर्वशीर्ष