Shri Krishna Janam Stuti Shrimad Bhagwat Mahapuran–श्रीकृष्ण जन्म स्तुति
श्रीमद्भागवतमहापुराण के दसम स्कन्ध पूर्वार्ध अध्याय ३में अपने अभी जन्मे पुत्र श्रीकृष्ण को साक्षात् भगवान जानकर पहले श्रीवसुदेवजी ने फिर माता देवकी ने स्तुति(Shri Krishna Janam Stuti Shrimad Bhagwat Mahapuran) की।
अथ श्रीकृष्ण जन्म स्तुति-Shri Krishna Janam Stuti
श्रीवसुदेव उवाच ।
विदितोऽसि भवान् साक्षात् पुरुषः प्रकृतेः परः ।
केवलानुभवानन्द स्वरूपः सर्वबुद्धिदृक् ॥ १॥
वसुदेवजी ने कहा — मैं समझ गया कि आप प्रकृति से अतीत साक्षात् पुरुषोत्तम हैं । आपका स्वरूप हैं केवल अनुभव और केवल आनन्द । आप समस्त बुद्धियों के एकमात्र साक्षी हैं।
स एव स्वप्रकृत्येदं सृष्ट्वाग्रे त्रिगुणात्मकम् ।
तदनु त्वं ह्यप्रविष्टः प्रविष्ट इव भाव्यसे ॥ २ ॥
आप ही सर्ग के आदि में अपनी प्रकृति से इस त्रिगुणमय जगत् की सृष्टि करते हैं । फिर उसमें प्रविष्ट न होने पर भी आप प्रविष्ट के समान जान पड़ते हैं।
यथा इमे अविकृता भावाः तथा ते विकृतैः सह ।
नानावीर्याः पृथग्भूता विराजं जनयन्ति हि ॥ ३ ॥
सन्निपत्य समुत्पाद्य दृश्यन्तेऽनुगता इव ।
प्रागेव विद्यमानत्वात् न तेषां इह संभवः ॥ ४ ॥
जैसे जब तक महत्तत्त्व आदि कारण-तत्त्व पृथक्-पृथक् रहते हैं, तब तक उनकी शक्ति भी पृथक्-पृथक् होती है; जब वे इन्द्रियादि सोलह विकारों के साथ मिलते हैं, तभी इस ब्रह्माण्ड की रचना करते हैं और इसे उत्पन्न करके इसी में अनुप्रविष्ट-से जान पड़ते हैं; परंतु सच्ची बात तो यह है कि वे किसी भी पदार्थ में प्रवेश नहीं करते । ऐसा होने का कारण यह है कि उनसे बनी हुई जो भी वस्तु है, उसमें वे पहले से ही विद्यमान रहते हैं।
एवं भवान् बुद्ध्यनुमेयलक्षणैः ग्राह्यैर्गुणैः सन्नपि तद्गुणाग्रहः ।
अनावृतत्वाद् बहिरन्तरं न ते सर्वस्य सर्वात्मन आत्मवस्तुनः ॥ ५॥
ठीक वैसे ही बुद्धि के द्वारा केवल गुणों के लक्षणों का ही अनुमान किया जाता है और इन्द्रियों के द्वारा केवल गुणमय विषयों का ही ग्रहण होता है । यद्यपि आप उनमें रहते हैं, फिर भी उन गुणों के ग्रहण से आपका ग्रहण नहीं होता । इसका कारण यह है कि आप सब कुछ हैं, सबके अन्तर्यामी हैं और परमार्थ सत्य, आत्मस्वरूप है । गुणों का आवरण आपको ढक नहीं सकता । इसलिये आप में न बाहर है न भीतर । फिर आप किसमें प्रवेश करेंगे ? (इसलिये प्रवेश न करने पर भी आप प्रवेश किये हुए के समान दीखते हैं) ।
य आत्मनो दृश्यगुणेषु सन्निति व्यवस्यते स्व-व्यतिरेकतोऽबुधः ।
विनानुवादं न च तन्मनीषितं सम्यग् यतस्त्यक्तमुपाददत् पुमान् ॥ ६॥
जो अपने इन दृश्य गुणों को अपने से पृथक् मानकर सत्य समझता है, वह अज्ञानी हैं । क्योंकि विचार करने पर ये देह-गेह आदि पदार्थ वाग्विलास के सिवा और कुछ नहीं सिद्ध होते । विचार के द्वारा जिस वस्तु का अस्तित्व सिद्ध नहीं होता, बल्कि जो बाधित हो जाती है, उसको सत्य माननेवाला पुरुष बुद्धिमान् कैसे हो सकता है ? ।
त्वत्तोऽस्य जन्मस्थिति संयमान् विभो वदन्ति अनीहात् अगुणाद् अविक्रियात् ।
त्वयीश्वरे ब्रह्मणि नो विरुध्यते त्वद् आश्रयत्वाद् उपचर्यते गुणैः ॥ ७ ॥
प्रभो ! कहते हैं कि आप स्वयं समस्त क्रियाओं, गुणों और विकारों से रहित हैं । फिर भी इस जगत् की सृष्टि, स्थिति और प्रलय आपसे ही होते हैं । यह बात परम ऐश्वर्यशाली परब्रह्म परमात्मा आपके लिये असंगत नहीं है । क्योंकि तीनों गुणों के आश्रय आप ही हैं, इसलिये उन गुणों के कार्य आदि का आपमें ही आरोप किया जाता है।
स त्वं त्रिलोकस्थितये स्वमायया बिभर्षि शुक्लं खलु वर्णमात्मनः ।
सर्गाय रक्तं रजसोपबृंहितं कृष्णं च वर्णं तमसा जनात्यये ॥ ८ ॥
आप ही तीनों लोकों की रक्षा करने के लिये अपनी माया से सत्त्वमय शुक्लवर्ण (पोषणकारी विष्णुरूप) धारण करते हैं, उत्पत्ति के लिये रजःप्रधान रक्तवर्ण (सुजनकारी ब्रह्मारूप) और प्रलय के समय तमोगुण-प्रधान कृष्णवर्ण (संहारकारी रुद्ररूप) स्वीकार करते हैं।
श्रीकृष्णजन्मस्तुति
श्रीदेवक्युवाच ।
रूपं यत् तत् प्राहुरव्यक्तमाद्यं ब्रह्म ज्योतिर्निर्गुणं निर्विकारम् ।
सत्तामात्रं निर्विशेषं निरीहं स त्वं साक्षात् विष्णुरध्यात्मदीपः ॥ १॥
माता देवकी ने कहा — प्रभो ! वेदों ने आपके जिस रूप को अव्यक्त और सबका कारण बतलाया है, जो ब्रह्म, ज्योतिःस्वरूप, समस्त गुणों से रहित और विकारहीन है, जिसे विशेषण-रहित-अनिर्वचनीय, निष्क्रिय एवं केवल विशुद्ध सत्ता के रूप में कहा गया हैं — वही बुद्धि आदि के प्रकाशक विष्णु आप स्वयं हैं।
नष्टे लोके द्विपरार्धावसाने महाभूतेषु आदिभूतं गतेषु ।
व्यक्ते अव्यक्तं कालवेगेन याते भवान् एकः शिष्यते शेषसंज्ञः ॥ २ ॥
जिस समय ब्रह्मा की पूरी आयु — दो परार्ध समाप्त हो जाते हैं, काल शक्ति के प्रभाव से सारे लोक नष्ट हो जाते हैं, पञ्च महाभूत अहङ्कार में, अहङ्कार महत्तत्त्व में और महत्तत्त्व प्रकृति में लीन हो जाता है — उस समय एकमात्र आप ही शेष रह जाते हैं । इसी से आपका एक नाम ‘शेष’ भी है ।
योऽयं कालस्तस्य तेऽव्यक्तबन्धो चेष्टां आहुः चेष्टते येन विश्वम् ।
निमेषादिः वत्सरान्तो महीयान् तं त्वेशानं क्षेमधाम प्रपद्ये ॥ ३ ॥
प्रकृति के एकमात्र सहायक प्रभो ! निमेष से लेकर वर्ष-पर्यन्त अनेक विभागों में विभक्त जो काल हैं, जिसकी चेष्टा से यह सम्पूर्ण विश्व सचेष्ट हो रहा है और जिसकी कोई सीमा नहीं है, वह आपकी लीलामात्र है । आप सर्वशक्तिमान् और परम कल्याण के आश्रय हैं । मैं आपकी शरण लेती हूँ।
मर्त्यो मृत्युव्यालभीतः पलायन् लोकान् सर्वान् निर्भयं नाध्यगच्छत् ।
त्वत्पादाब्जं प्राप्य यदृच्छयाद्य स्वस्थः शेते मृत्युरस्मादपैति ॥ ४ ॥
प्रभो ! यह जीव मृत्युग्रस्त हो रहा है । यह मृत्युरूप कराल व्याल से भयभीत होकर सम्पूर्ण लोक-लोकान्तरों में भटकता रहा है, परन्तु इसे कभी कहीं भी ऐसा स्थान न मिल सका, जहाँ यह निर्भय होकर रहे । आज बड़े भाग्य से इसे आपके चरणारविन्दों की शरण मिल गयी । अतः अब यह स्वस्थ होकर सुख की नींद सो रहा है । औरों की तो वात ही क्या, स्वयं मृत्यु भी इससे भयभीत होकर भाग गयी है।
श्रीकृष्ण जन्म स्तुति: समाप्त॥
Shri Krishna Janam Stuti
🙏🙏🙏 🕉️ नमो भगवते वासुदेवाय 🙏🙏🙏
बेजोड़, बेमिसाल। मैं आपकी प्रस्तुति का दीवाना हो गया हूं । इसी क्रम में मैं आपसे “प्नहलाद कृत भगवत स्तुति – नमस्ते पुण्डरीकाक्ष नमस्ते पुरुषोत्तम (28श्लोक) भावार्थ के साथ प्रकाशित करने की विनती इस उम्मीद के साथ करता हूं कि आप इसे शीघ्रातिशीघ्र करेंगे । इसके लिए मैं
आपका आभारी रहूंगा ।
Thanks in advance
🙏🙏🙏 🕉️ नमो भगवते वासुदेवाय । 🙏🙏🙏
What about my last request for “प्नहलाद कृत भगवत स्तुति – नमस्ते पुण्डरीकाक्ष नमस्ते पुरुषोत्तम (28 shlokas) alongwith it’s Hindi meaning ? Kindly make it available as soon as possible.
🙏🙏 🕉️ श्री राधा कृष्णाये नमः 🙏🙏