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Radha Ji Ke 16 Naam

Radha Ji Ke 16 Naam Hindi Arth Sahit

Posted on June 27, 2024June 27, 2024 by santwana

इस लेख के माध्यम से हम आपको राधा जी के 16 नाम और उनका अर्थ बतायेंगे। ब्रह्म वैवर्त पुराण में नारायण द्वारा नारद जी को वर्णित श्रीराधारानी जी के 16 नाम इस प्रकार है।

Radha Ji Ke 16 Naam-राधा जी के 16 नाम के अर्थ

राधा रासेश्वरी रासवासिनी रसिकेश्वरी । 
कृष्णप्राणाधिका कृष्णप्रिया कृष्णस्वरूपिणी ॥ 
कृष्णवामाड्सम्भूता परमानन्दरूपिणी | 
कृष्णा वृन्दावनी वृन्दा वृन्दावनविनोदिनी ॥ 
चन्द्रावली . चन्द्रकानता शरच्चन्द्रप्रभाना । 
नामान्येतानि साराणि तेषामभ्यन्तराणि च॥

राधा, रासेश्वरी, रासवासिनी, रसिकेश्वरी, कृष्णप्राणाधिका, कृष्णप्रिया, कृष्णस्वरूपिणी, कृष्णवामाज्जसम्भूता, परमानन्दरूपिणी, कृष्णा, वृन्दावनी, वृन्दा, वृन्दावनविनोदिनी, चन्द्रावली, चन्द्रकान्ता और शरच्चन्द्रप्रभानना–ये सारभूत सोलह नाम उन सहस्त्र नामोंके ही अन्तर्गत हैं। 

Radha Ji Ke 16 Naam Ka Arth–

राधेत्येवे च संसिद्धौ राकारों दानवाचक:। स्वयं निर्वाणदात्री या सा राधा परिकीर्तिता॥ 

राधा शब्दमें ‘धा’ का अर्थ है संसिद्धि (निर्वाण) तथा ‘रा’ दानवाचक है। जो स्वयं निर्वाण (मोक्ष) प्रदान करनेवाली हैं; वे ‘राधा’ कही गयी हैं।

रासेशरस्य पत्नीयं॑ तेन रासेश्वरी स्मृता। रासे च वासो यस्याश्र तेन सा रासवासिनी॥ 

रासेश्वरकी ये पत्नी हैं; इसलिये इनका नाम ‘रासेश्वरी’ है। उनका रासमण्डलमें निवास है; इससे वे ‘ रासवासिनी’ कहलाती हैं ।

सर्वासां रसिकानां च देवीनामीश्वरी परा। प्रवदन्‍नति पुरा सन्तस्तेन तां रसिकेश्वरीम्‌॥ 

वे समस्त रसिक देवियोंकी परमेश्वरी हैं; अत: पुरातन संत-महात्मा उन्हें ‘रसिकेश्वरी’ कहते हैं।

प्राणाधिका प्रेयमसी सा कृष्णस्य परमात्मन: | कृष्णप्राणाधिका सा च कृष्णेन परिकीर्तिता॥ 

परमात्मा श्रीकृष्णके लिये वे प्राणोंसे भी अधिक प्रियतमा हैं; अतः साक्षात्‌ श्रीकृष्णने ही उन्हें ‘कृष्णप्राणाधिका’ नाम दिया है। 

कृष्णस्यातिप्रिया कान्ता कृष्णो वास्या: प्रिय: सदा। सर्वैर्देवगणैरुक्ता तेन कृष्णप्रिया स्मृता॥ 

वे श्रीकृष्णजी अत्यन्त प्रिया कान्ता  हैं अथवा श्रीकृष्ण ही सदा उन्हें प्रिय हैं; इसलिये समस्त देवताओंने उन्हें ‘ कृष्णप्रिया ‘ कहा है।

कृष्णरूपं संनिधातुं या शक्ता चावलीलया | सर्वाशै  कृष्णसदृशी तेन कृष्णस्वरूपिणी ॥

 वे श्रीकृष्णरूपको लीलापूर्वक निकट लानेमें समर्थ हैं तथा सभी अंशोंमें श्रीकृष्णके सदृश हैं; अत: “कृष्णस्वरूपिणी’ कही गयी हैं। 

वामाङ्गाधर्देन कृष्णस्य या सम्भूता परा सती । कृष्णवामाङ्गसम्भूता तेन कृष्णेन कीर्तिता॥ 

परम सती श्रीराधा श्रीकृष्णके आधे वामाङ्गभागसे प्रकट हुई हैं; अत: श्रीकृष्णने स्वयं ही उन्हें ‘कृष्णवामाङ्गसम्भूता’ कहा है।

परमानन्दराशिश्व॒ स्वयं. मूर्तिमती सती | श्रुतिभि: कीर्तिता तेन परमानन्दरूपिणी॥ 

सती श्रीराधा स्वयं परमानन्दकी मूर्तिमती राशि हैं; अत: श्रुतियोंने उन्हें ‘परमानन्दरूपिणी’ कौ संज्ञा दी है।

कृषिर्मोक्षार्थचनो ण एवोत्कृष्टवाचक:। आकारो दातृवचनस्तेन कृष्णा प्रकीर्तिता॥ 

‘कृष्‌’ शब्द मोक्षका वाचक है, ‘ण’ उत्कृष्टाका बोधक है और ‘आकार’ दाताके अर्थमें आता है। वे उत्कृष्ट मोक्षकी दात्री हैं; इसलिये “कृष्णा” कही गयी हैं। 

अस्ति वृन्दावनं यस्यास्तेन वृन्दावनी स्मृता | वृन्दावनस्याधिदेवी तेन वाथ प्रकीर्तिता॥ 

वृन्दावन उन्हींका है; इसलिये वे ‘वृन्दावनी’ कही गयी हैं अथवा वृन्दावनकी अधिदेवी होनेके कारण उन्हें यह नाम प्राप्त हुआ है।

सद्ढछ: सखीनां वृन्द: स्यादकारो5प्यस्तिवाचक: । सखिवृन्दो5स्ति यस्याश्रव सा वृन्दा परिकीर्तिता॥ 

सखियोंके समुदायको “वृन्द’ कहते हैं और ‘अकार’ सत्ताका वाचक है। उनके सखियों का समूह (वृन्द) है; इसलिये वे “वृन्दा’ कही गयी हैं। 

वृन्दावने विनोदश्च सोऽस्या हास्ति च तत्र वे | वेदा वदन्ति तां तेन वृन्दावनविनोदिनीम्‌॥ 

उन्हें सदा वृन्दावनमें विनोद प्राप्त होता है; अत: वेद उनको ‘वृन्दावनविनोदिनी’ कहते हैं।

नखचन्द्रावलीवक्त्रचन्द्रोडस्ति यत्र संततम्‌ | तेन चन्द्रावली सा च कृष्णेन परिकीर्तिता॥

वे सदा मुखचन्द्र तथा नखचन्द्रकी अवली (पंक्ति)-से युक्त हैं(उनके नखों की चमक और मुख की सुंदरता हमेशा प्रकाशित रहती है); इस कारण श्रीकृष्णने उन्हें ‘चन्द्रावली’ नाम दिया है। 

कान्तिरस्ति चन्द्रतुल्या सदा यस्या दिवानिशम्‌ | मुनिना कीर्तिता तेन शरच्चन्द्रप्रभानना॥ 

उनकी कान्ति दिनरात सदा ही चन्द्रमाके तुल्य बनी रहती है; अत: श्रीहरि हर्षोल्लालके कारण उन्हें “चन्द्रकान्ता’ कहते हैं। उनके मुखपर दिन-रात शरत्कालके चन्द्रमाकी-सी प्रभा फैली रहती है; इसलिये मुनिमण्डलीने उन्हें ‘शरच्चन्द्रप्रभानना’ कहा है।

इदं षोडशनामोक्तमर्थव्याख्यानसंयुतम्‌ । नारायणेन यद्धत्तं ब्रह्मणे नाभिपडूजे॥ 

यह अर्थ और व्याख्याओंसहित षोडशनामावली कही गयी; जिसे नारायणने अपने नाभिकमलपर विराजमान ब्रह्माको दिया था। 

ब्रह्मणा च पुरा दत्त धर्माय जनकाय में | धर्मेण कृपया दत्त महामादित्यपर्वणि पुष्करे च महातीर्थे पुण्याहे देवसंसदि॥

फिर ब्रह्माजीने पूर्वकालमें मेरे पिता धर्मदेवको इन नामावलीका उपदेश दिया और श्रीधर्मदेवने महातीर्थ पुष्करमें सूर्य-ग्रहणके पुण्य पर्वपर देवसभाके बीच मुझे कृपापूर्वक इन सोलह नामोंका उपदेश दिया था।

राधाप्रभावप्रस्तावे सुप्रसन्नेन चेतसा । निन्दकायावैष्णाय न दातव्यं महामुने । 
राधामाधवयो: पादपद्मे भक्तिर्भवेदिह ।अणिमादिकसिद्धिं च संप्राप्प नित्यविग्रहम्‌ । 
चतुर्णा चैव वेदानां पाठ: सर्वार्थसंयुते: । प्रदक्षिणिन. भूमेश्व कृत्साया एवं सप्तधा । 
देवानां वैष्णवानां च द्श्नेनापि यत्‌ फलम्‌ |तदेव स्तोत्रपाठस्य कलां नाहति षोडशीम्‌॥
स्तोत्रस्यास्यप्रभावेण जीवन्मुक्तो भवेन्नर: । (१७। २२०–२४६)

श्रीराधाके प्रभावकी प्रस्तावना होनेपर बड़े प्रसन्नचित्तसे उन्होंने इन नामोंकी व्याख्या की थी। मुने! यह राधाका परम पुण्यमय स्तोत्र है, जिसे मैंने तुमको दिया। 

महामुने ! जो वैष्णव न हो तथा वैष्णवोंका निन्दक हो, उसे इसका उपदेश नहीं देना चाहिये। जो मनुष्य जीवनभर तीनों संध्याओंके समय इस स्तोत्रका पाठ करता है, उसकी यहाँ राधामाधवके चरणकमलोंमें भक्ति होती है। अन्तमें वह उन दोनोंका दास्यभाव प्राप्त कर लेता है और दिव्य शरीर एवं अणिमा आदि सिद्धिको पाकर सदा उन प्रिया-प्रियतमके साथ विचरता है | नियमपूर्वक किये गये सम्पूर्ण ब्रत, दान और उपवाससे, चारों वेदोंके अर्थस्रहित पाठसे, समस्त यज्ञों और तीर्थोॉके विधिबोधित अनुष्ठान तथा सेवनसे, सम्पूर्ण भूमिकी सात बार की गयी परिक्रमासे, शरणागतकी रक्षासे, अक्ञानीको ज्ञान देनेसे तथा देवताओं और वैष्णवोंका दर्शन करनेसे भी जो फल प्राप्त होता है, वह इस स्तोत्रपाठकी सोलहवीं कलाके भी बराबर नहीं है। इस स्तोत्रके प्रभावसे मनुष्य जीवन्मुक्त हो जाता है। 

Category: Stotra/ Stuti

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