Ganesh Chaturthi Ko Chandra Darshan
एक बार चंद्र देव के ऊपर क्रोधित होकर भगवान गणेश ने उन्हें यह श्राप दिया था की अब वह देखने योग्य नहीं रह जायेंगे और जो भी प्राणी उनके दर्शन करेगा उसे भी कलंक अवश्य लगेगा। जानिए क्या है पूरी कथा और कैसे मिली चंद्रदेव को श्राप से मुक्तिऔर क्या करें यदि गलती से भाद्रपद शुक्ल पक्ष चतुर्थी के चन्द्रमा के दर्शन हो जाएं।
Ganesh Chaturthi Ko Chandra Darshan ki Katha-चंद्र देव को श्राप की कथा
प्राचीन काल की बात है कैलाश शिखर पर अनेक देवगण दिव्य ऋषि गण सिद्धगण के साथ चतुरानन ब्रह्मा जी भी एक उच्च आसन पर विद्यमान थे। वहीं पर देवी पार्वती और शिव भी एक अन्य आसन पर विराजमान थे। बालक गणेश और कार्तिकेय अपनी क्रीड़ा में मग्न थे।
उसी समय वहां पर देवऋषि नारद उपस्थित हुए और एक दिव्य फल लेकर आये जिसे उन्होंने माता पार्वती को दिया और कहा कि कैलाश पर जो ज्यादा बुद्धिमान हो उसे यह फल दे दें।
यह सुनकर माता पार्वती और शिव जी सोच में पड़ गए कि यह फल किसे दें क्योंकि दोनों ही बालक उस फल को पाना चाहते थे। तभी चतुरानन ब्रह्मा जी बोल पड़े कि नियमानुसार यह फल बड़े बालक को दिया जाना चाहिए। ब्रह्मा जी के कहने पर माता ने वह फल बालक कार्तिकेय को दे दिया। बालक गणेश को यह बात पसंद नहीं आई कि चतुरानन ने यह कैसी व्यवस्था कर दी।
सभा समाप्त होने पर सभी देवगण अपने-अपने स्थान को चले गए। ब्रह्मा जी भी अपने लोक को चले गये। अपने लोक को पहुंच कर ज्यों ही ब्रह्मा जी ने सृष्टि निर्माण का कार्य आरम्भ करना चाहा गणेश जी उसमें विघ्न डालने लगे। ब्रह्मा जी गणपति का उग्र रूप देखकर भयभीत हो गए। उन्हें अपनी गलती का एहसास हो गया। उन्होंने गणपति से क्षमा मांगी।
चन्द्रमा या सब देख रहा था। उसने गणेश जी रूप कितना विचित्र है यह कहकर उनका उपहास उड़ाया और जोर-जोर से हँसने लगा।
चन्द्रमा की यह धृष्टता देखकर भगवान गणेश क्रोधित हो गए और भगवान गणेश ने चन्द्रमा को(chandra dev ko shrap) यह श्राप दिया कि तुम देखने योग्य नहीं रह जाओगे तुम कलंकित हो जाओगे तथा तुम्हारा सारा तेज समाप्त हो जायेगा। जो भी प्राणी तुम्हारा दर्शन करेगा उसपर कलंक लगेगा।
श्राप मिलने के पश्चात् चन्द्रमा तेजहीन हो गए और चंद्र लोक से पतित हो कर पृथ्वी पर आ गिरे । तब उनकी पत्नी रोहिणी ने भगवान शिव की आराधना करने का निर्णय लिया। और समुद्र तट पर शिव की आराधना प्रारंभ कर दी।
जब रोहिणी की पुकार कैलाश तक पहुंची तो माता पार्वती ने भगवान शिव से चंद्र देव की मदद करने को कहा तब भगवान शिव ने कहा कि चंद्रदेव ने अपराध किया है और उन्हें इस का बोध होना आवश्यक है तथा वह भगवान गणेश के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं कर सकते तब माता पार्वती ने अपने कर्तव्य का पालन करने का निर्णय लिया और रोहिणी को दर्शन देकर श्राप मुक्ति हेतु चंद्र देव के साथ भगवान गणेश की आराधना करने को कहा ।
माता पार्वती की आज्ञा अनुसार चंद्रदेव और रोहिणी ने भगवान गणेश की आराधना प्रारंभ की जिससे प्रसन्न होकर गणेश जी ने चंद्रदेव को दर्शन दिए। सब चंद्रदेव ने अपनी गलती के लिए भगवान गणेश से क्षमा मांगी।
तब भगवान गणेश ने कहा कि किसी प्राणी का उपहास उड़ाने वाले को नारकीय प्रताड़ना तो झेलनी ही पड़ेगी तब चंद्रदेव ने इसका कारण पूछा इस पर गणेश जी ने कहा की इस संसार में जो भी प्राणी है वह विधाता की कृति है .अतः किसी भी प्राणी का उसके रूप के कारण उपहास उड़ाना विधाता की कृति का उपहास उड़ाने के सामान है। अतः अपनी कृति का उपहास उड़ाने पर विधाता क्रोधित ही होते हैंऔर उस प्राणी को विधाता के कोप का सामना करना पड़ता है.
भगवान गणेश चंद्र देव से कहते हैं कि तुम श्राप से मुक्त अवश्य हो जाओगे परंतु तुम्हारी इस गलती का एहसास जन-जन को रहे इसलिए एक बंधन अवश्य रहेगा। भगवान गणेश कहते हैं कि तुम पूर्णिमा की तिथि के पश्चात् क्षीण होते-होते अमावस्या तब आकाश से अदृश्य हो जाओगे और अमावस्या के पश्चात् पुनः पूर्णिमा तक पूर्ण रूप में आ जाओगे।
इसपर देवी रोहिणी इसमें कैसी बाधा है। तब भगवान गणेश जी ने बताया कि उनके जन्मदिवस अर्थात भाद्रपद शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को जो कोई भी प्राणी चंद्र देव के दर्शन करेगा उसे किसी न किसी कलंक का भागी बनना पड़ेगा और उसपर निर्दोष होते हुए भी कोई आरोप अवश्य लगेगा।
इसपर चंद्र देव गणेश जी से वरदान मांगते हैं कि उन्हें कोई ऐसा वरदान दें जिससे उनका नाम गणेश जी के साथ धर्म के क्षेत्र में अमर हो जाये। इसपर भगवान गणेश कहते हैं कि हर मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्थी तिथि को संकष्टी चतुर्थी के नाम से जाना जायेगा। उस दिन जो प्राणी दिनभर उपवास के पश्चात् चंद्र दर्शन के पश्चात् भगवान गणेश की पूजा करेगा उसको भगवान गणेश की पूर्ण कृपा प्राप्त होगी।
Ganesh Chaturthi Ko Chandra Darshan Varjit-भाद्रपद शुक्ल पक्ष की चतुर्थी चंद्र दर्शन निषेध
भगवान गणेश ने चंद्र देव को श्राप(chandra dev ko shrap) दिया था कि भाद्रपद शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को जो कोई भी प्राणी चंद्र देव के दर्शन करेगा उसे किसी न किसी कलंक का भागी बनना पड़ेगा और उसपर निर्दोष होते हुए भी कोई आरोप अवश्य लगेगा। अतः भाद्रपद शुक्ल पक्ष की चतुर्थी के चंद्र का दर्शन निषेध है। यदि गलती से दर्शन हो जाये तो शास्त्रों में निम्न उपाय बताए गए हैं।
Ganesh Chaturthi Ko Chandra Darshan ka Nivaran-भाद्रपद शुक्ल पक्ष चतुर्थी के चन्द्रमा के दर्शन का निवारण
यदि भूल से भाद्रपद शुक्ल पक्ष चतुर्थी को चंद्र दर्शन हो जाएं तो उसके दोष निवारणार्थ भगवान गणेश का चिंतन करें। निम्न श्लोक का पाठ चंद्र दर्शन के दोष हेतु अत्यंत महत्वपूर्ण है।
सिंहप्रसेनमधीत् सिंहो जाम्बवता हतः।
सुकुमारक मा रोदीस्तव ह्येष स्यमन्तकः।।
साथ ही स्यमन्तक मणि की कथा(syamantak mani katha) को भी सुनना चाहिए।
Chandra Dev Ko Shrap Aur Syamantaka Mani Katha-चंद्र देव को श्राप और स्यमन्तक मणि कथा
एक बार नंदककशोर ने सनत कुमारों से कहा कि चौथ की चंद्रमा के दर्शन करने से श्रीकृष्ण पर जो लांछन लगा था, वह सिद्धि विनायक व्रत करने से ही दूर हुआ था। ऐसा सुनकर सनतकुमारों को बहुत आश्चर्य हुआ।
उन्होंने श्रीकृष्ण को कलंक लगनेकी कथा पूछी तो नंदककशोर ने बताया-एकबार जब श्रीकृष्ण समुद्र के मध्य नगरी बसाकर रहनेलगे। इसी नगरी का नाम आजकल द्वाररकापुरी है।द्वाररकापुरी में निवास करने वाले सत्राजित यादव ने सूर्य देव की आराधना की। तब भगवान ने उसकी आराधना से प्रसन्न होकर उसे रोज आठ भार सोना देने वाली स्यमन्तक मणि प्रदान की।
मणि को पाकर जब सत्राजित समाज में गया तो श्रीकृष्ण ने उससे वह मणि प्राप्त करने की इच्छा व्यक्त की परन्तु सत्राजित ने भगवान श्रीकृष्ण को वह मणि न देकर अपने भाई प्रसेनजित को दे दी।
एक दिन जब प्रसेनजित घोड़े पर सवार होकर शिकार खेलने गया था वहाँ पर एक शेर ने उसे मार डाला और मणि ले ली। रीछों के राजा जामवंत ने उस सिंह को मारकर उससे वह मणि ले ली और मणि लेकर अपनी गुफा में चला गये ।
जब प्रसेनजित कई दिनों तक वापस नहीं लौटा तो सत्राजित को लगा अवश्य ही श्रीकृष्ण ने मणि ले लालच में उसके भाई का वध कर दिया है। अतः बिना पूरी बात को पता किये उसने सबसे यह कहना शुरू कर दिया कि श्रीकृष्ण ने उसके भाई प्रसेनजित को मारकर मणि छीन ली है।
तब श्रीकृष्ण सच्चाई का पता लगाने हेतु वन को गये। वहाँ पर उन्हें प्रसेनजित मरा हुआ मिला साथ ही पास में सिंह भी मरा हुआ मिला। जिससे उन्हें यह पता चला कि प्रसेनजित को सिंह ने मारा है।
पास ही उन्हें रीछ के पद चिन्ह भी दिखे जो एक गुफा में जा रहे थे। तब उन्हें यह विश्वाश हो गया अवश्य ही रीछ ने उस सिंह को मार दिया होगा।
तब श्रीकृष्ण ने गुफा में प्रवेश करने का निर्णय लिया और अपने साथियों को यह बोलकर गए कि वे उनका गुफा का बाहर ही इंतजार करें। यदि वह इक्कीस दिन तक बाहर नहीं आते तो ही गुफा में प्रवेश करें।
गुफा में प्रवेश करने पर श्रीकृष्ण ने देखा कि जामवंत की पुत्री उससे खेल रही है। जब उन्होंने जामवंत की पुत्री से वह मणि लेनी चाही तो जामवंत ने उनसे युद्ध शुरू कर दिया।बीस दिन तक युद्ध चलता रहा परन्तु कोई विजयी नहीं हो सका। युद्ध के इक्कीसवें दिन श्रीकृष्ण ने मुँह पर एक मुक्का मारा तब जामवंत को यह एहसास हुआ कि ये तो उनके प्रभु श्रीराम ही हैं। तब उन्होंने अपनी पुत्री जामवंती का विवाह उनके साथ कर दिया और उन्हें मणि दे दी।
जब श्रीकृष्ण मणि लेकर वापस आये तो सत्राजित को अपनी गलती का एहसास हुआ और वह बहुत लज्जित हुआ तथा अपनी पुत्री सत्यभामा का विवाह श्रीकृष्ण के साथ कर दिया।
कुछ समय के बाद श्रीकृष्ण किसी काम से इंद्रप्रस्थ चले गए। तब अक्रूर तथा ऋतु वर्मा की राय से शतधन्वा ने सत्राजित को मारकर मणि अपने कब्जे में ले ली। सत्राजित की मौत का समाचार जब श्रीकृष्ण को मिला तो वे तत्काल द्वारिका पहुँचे।
वे शतधन्वा को मारकर मणि छीनने को तैयार हो गए। इस कार्य में सहायता के लिए बलराम भी तैयार थे। यह जानकर शतधन्वा ने मणि अक्रूर को दे दी और स्वयं भाग निकला। श्रीकृष्ण ने उसका पीछा करके उसे मार तो डाला, पर मणि उन्हें नहीं मिल पाई।
बलरामजी भी वहाँ पहुँचे। श्रीकृष्ण ने उन्हें बताया कि मणि इसके पास नहीं है। बलरामजी को विश्वास न हुआ। वे अप्रसन्न होकर विदर्भ चले गए। श्रीकृष्ण के द्वारिका लौटने पर लोगों ने उनका भारी अपमान किया। तत्काल यह समाचार फैल गया कि स्यमन्तक मणि के लोभ में श्रीकृष्ण ने अपने भाई को भी त्याग दिया।
श्रीकृष्ण इस अकारण प्राप्त अपमान के शोक में डूबे थे कि सहसा वहाँ नारदजी आ गए। उन्होंने श्रीकृष्णजी को बताया- आपने भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी के चंद्रमा का दर्शन किया था। इसी कारण आपको इस तरह लांछित होना पड़ा है।
तब श्रीकृष्ण ने नारद जी से पूछा कि ऐसा क्या हो गया था कि चन्द्रमा के दर्शनमात्र से प्राणी को कलंक लग जाता है। तब नारद जी ने चन्द्रमा के श्राप की कथा श्रीकृष्ण को बताई और बताया कि इसी कारण से भाद्रपद शुक्ल पक्ष की चतुर्थी के चंद्र का दर्शन वर्जित है। अतः मनुष्य द्वारा इस दिन चंद्र के दर्शन कर लेने पर मनुष्य को झूठे कलंक का सामना करना पड़ता है।
यह भी बताया कि चंद्र की तपस्या से प्रसन्न होकर यह वरदान भी दिया कि जो मनुष्य प्रत्येक द्वितीया को चंद्र दर्शन करता रहेगा, वह इस लांछन से बच जाएगातथा इस चतुर्थी को सिद्धि विनायक व्रत करने से सारे दोष छूट जाएँगे।
इस प्रकार भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को चंद्रमा का दर्शन करने से आपको यह कलंक लगा है। तब श्रीकृष्ण ने कलंक से मुक्त होने के लिए यही व्रत किया था।