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Kabir Das

Famous Kabir Das Ke Dohe Arth Sahit-कबीर दास के दोहे

Posted on July 5, 2023October 10, 2023 by santwana

Kabir Das Ke Dohe

कबीर दास 15वीं सदी के भारतीय रहस्यवादी कवि और संत थे। वे हिन्दी साहित्य के भक्तिकाल के निर्गुण शाखा के ज्ञानमर्गी उपशाखा के महानतम कवि थे। वे हिन्दू धर्म व इस्लाम को मानते हुए धर्म एक सर्वोच्च ईश्वर में विश्वास रखते थे। उन्होंने सामाज में फैली कुरीतियों, कर्मकांड, अंधविश्वास की निंदा की और सामाजिक बुराइयों की कड़ी आलोचना भी की। उन्होंने मनुष्य के जीवन में गुरु के होने को बहुत महत्वपूर्ण माना है। स्वामी रामानंद कबीर दास जी के गुरु थे। इस लेख का उद्देश्य उनके विचारों को आगे बढ़ाना है।

Table Of Contents
  1. Kabir Das Ke Dohe-कबीर दास के दोहे
  2. Books To Read

Kabir Das Ke Dohe-कबीर दास के दोहे

गुरु गोविंद दोउ खड़े, काके लागूं पाँय ।
बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो मिलाय॥

कबीर दास जी कहते हैं कि यदि हमारे सामने गुरु और गोविन्द (भगवान) दोनों एक साथ खड़े हों तो मन में दुविधा होती है कि किसके चरण स्पर्श करें। क्योंकि गुरु के द्वारा मिले ज्ञान से ही हमें भगवान की प्राप्ति होती है इसलिए गुरु की महिमा भगवान से भी ऊपर है और हमें गुरु के चरण स्पर्श करने चाहिए।

Kabir Das Ke Dohe
Kabir Das Ke Dohe

यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान ।
शीश दियो जो गुरु मिले, तो भी सस्ता जान ।।

कबीर दास जी कहते हैं कि यह जो शरीर है वो विष (काम, क्रोध, मद ,लोभ, मोह, मात्सर्य ) से भरा हुआ है और गुरु अमृत की खान हैं। अगर अपना शीश(सर) देने के बदले में अर्थात गुरु के चरणों में सर झुकाने मात्र से आपको कोई सच्चा गुरु मिल जाय तो भी ये सौदा भी बहुत सस्ता है अर्थात आसान मार्ग है।

जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान ।
मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान ।।

इस दोहे मे कबीर दास जी कहते हैं साधु(विद्वान) पुरुष की जाति नहीं पूछनी चाहिए बस उसके ज्ञान को समझना चाहिए। साधु के ज्ञान का मोल होता है न कि उसकी जाति का जैसे कि तलवार का मूल्य होता है न कि उसके म्यान का।

ऐसी वाणी बोलिए मन का आप खोये ।
औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होए ।।

Kabir Das Ke Dohe
Kabir Das Ke Dohe

कबीर दास जी कहते हैं कि इंसान को ऐसी वाणी बोलनी चाहिए जो सुनने वाले के मन को बहुत अच्छी लगे अर्थात किसी को कटु वचन नहीं कहने चाहिए। ऐसी वाणी दूसरे लोगों को तो सुख पहुँचाती ही है, इसके साथ स्वयं को भी बड़े आनंद आनंद की अनुभूति होती है।

लूट सके तो लूट ले,राम नाम की लूट ।
पाछे फिर पछ्ताओगे, प्राण जाहि जब छूट॥

कबीर दास जी कहते हैं कि अभी राम नाम की लूट मची है, अभी तुम भगवान् का जितना नाम लेना चाहो ले लो नहीं तो समय निकल जाने पर, अर्थात मृत्यु हो जाने के बाद पछताओगे कि मैंने तब राम भगवान की पूजा क्यों नहीं की।

माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर ।
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर ।।

कोई व्यक्ति लम्बे समय तक हाथ में लेकर मोती की माला तो घुमाता है, पर उसके मन का भाव नहीं बदलता, उसके मन की हलचल शांत नहीं होती। कबीर की ऐसे व्यक्ति को सलाह है कि हाथ की इस माला को फेरना छोड़ कर मन के मोतियों को बदलो या फेरो अर्थात अपने मन में शुद्धता और निर्मलता लाओ तभी ईश्वर की प्राप्ति संभव है।

जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ ।
मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ
।।

Kabir Das Ke Dohe
Kabir Das Ke Dohe

जो प्रयत्न करते हैं, वे कुछ न कुछ वैसे ही पा ही लेते हैं जैसे कोई मेहनत करने वाला गोताखोर गहरे पानी में जाता है और कुछ ले कर आता है। लेकिन कुछ बेचारे लोग ऐसे भी होते हैं जो डूबने के भय से किनारे पर ही बैठे रह जाते हैं और कुछ नहीं पाते। आशय यह कि किसी कार्य को यह सोच कर कि उसमें सफलता मिलेगी या नहीं यह सोच कर बैठे रहने से कोई फायदा नहीं है हमें हमेशा कार्य सिद्धि के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए तभी हम सफल हो सकते हैं।

बड़ा भया तो क्या भया, जैसे पेड़ खजूर ।
पंथी को छाया नहीं फल लागे अति दूर ।।

कबीर दास जी कहते हैं कि जिस खजूर का पेड़ बहुत बड़ा होता है लेकिन ना तो वो किसी को छाया देता है और फल भी बहुत ऊँचाई  पर लगते हैं। इसी तरह अगर यदि आप किसी का भला नहीं कर सकते तो ऐसे बड़े होने से भी कोई लाभ नहीं है।

निंदक नियेरे राखिये, आँगन कुटी छावायें ।
बिन पानी साबुन बिना, निर्मल करे सुहाए ।।

कबीर दास जी कहते हैं कि निंदक को को हमेशा अपने पास रखना चाहिए, क्योंकि ऐसे लोग यदि आपके पास रहेंगे तो आपको आपकी बुराइयाँ बताते रहेंगे और आप आसानी से अपनी गलतियां सुधार सकते हैं। निंदक बिना साबुन और पानी के इंसान के स्वभाव को शीतल बना देते हैं।

बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय ।
जो मन देखा आपना, मुझ से बुरा न कोय ।।

कबीर दास जी कहते हैं कि जब मैंने संसार में बुराई को ढूँढा तो मुझे कहीं नहीं मिला। मैं सारा जीवन दूसरों की बुराइयां देखने में लगा रहा लेकिन जब मैंने खुद अपने मन में झाँक कर देखा तो पाया कि मुझसे बुरा कोई इंसान नहीं है। मैं ही सबसे स्वार्थी और बुरा हूँ। आशय यह कि दूसरों की बुराइयों को देखने के पहले हमें स्वयं के अंदर की बुराइयों को देखना चाहिए।

दुःख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय ।
जो सुख में सुमिरन करे, तो दुःख काहे को होय ।।

दुःख में हर इंसान ईश्वर को याद करता है लेकिन सुख में सब ईश्वर को भूल जाते हैं। यदि हम सुख में भी ईश्वर को याद करें तो जीवन में दुःख कभी आएगा ही नहीं।

माटी कहे कुमार से, तू क्या रोंदे मोहे ।
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रोंदुंगी तोहे ।।

जब कुम्हार बर्तन बनाने के लिए मिट्टी को रौंद रहा था, तो मिट्टी कुम्हार से कहती है कि आज तू मुझे रौंद रहा है, एक दिन ऐसा आएगा जब तू इसी मिट्टी में विलीन हो जायेगा और मैं तुझे रौंदूंगी। इसका आशय यह कि किसी को भी व्यर्थ का अभिमान नहीं करना चाहिए क्योंकि समय सबसे अधिक बलवान है और एक दिन सबको ही मिट्टी में मिल जाना है अर्थात मृत्यु को प्राप्त होना है।

पानी केरा बुदबुदा, अस मानस की जात ।
देखत ही छुप जाएगा है, ज्यों सारा परभात ।।

कबीरदास जी कहते हैं कि मनुष्य जीवन पानी के बुलबुले के समान है जो थोड़ी-सी देर में नष्ट हो जाता है, जिस प्रकार प्रातःकाल होने पर तारागण प्रकाश के कारण छिप जाते हैं वैसे ही यह देह भी एक दिन नष्ट हो जाएगी ।

मलिन आवत देख के, कलियन कहे पुकार ।
फूले फूले चुन लिए, कलि हमारी बार ।।

मालिन को आते देखकर बगीचे की कलियाँ आपस में बातें करती हैं कि आज मालिन ने फूलों को तोड़ लिया और कल हमारी बारी आ जाएगी। अर्थात आज आप जवान हैं कल आप भी बूढ़े हो जायेंगे और एक दिन मिटटी में मिल जाओगे।आशय है कि काल सभी को अपना शिकार बनाता है। किसी की बारी आज है तो किसी की कल, यही सृष्टि का नियम है। भाव है कि हमें समय आने से पहले हमें ईश्वर की भक्ति में लीन हो जाना चाहिए ।

जब मैं था तब हरी नहीं, अब हरी है मैं नाही ।
सब अँधियारा मिट गया, दीपक देखा माही ।।

Kabir Das Ke Dohe
Kabir Das Ke Dohe-कबीर दास

जब मैं अपने अहंकार में डूबा था तब तक प्रभु को नहीं देख पाता था। लेकिन जब गुरु ने ज्ञान का दीपक मेरे भीतर प्रकाशित किया तब अज्ञान का सब अन्धकार मिट गया और ज्ञान की ज्योति से अहंकार ख़तम हुआ और ईश्वर के दर्शन हुए। अर्थात जब तक हमारे अंदर अहंकार विद्यमान है तब तक हमें ईश्वर की प्राप्ति नहीं हो सकती।

काल करे सो आज कर, आज करे सो अब ।
पल में परलय होएगी, बहुरि करेगा कब ।।

कबीर दास जी कहते हैं कि हमारे पास समय बहुत कम है इसलिए कोई भी काम कल पर नहीं छोड़ना चाहिए। जो काम कल करना है वो आज करो, और जो आज करना है वो अभी कर लेना चाहिए क्योंकि इस जीवन का कोई भरोसा नहीं है कि कब इसका अंत हो जाय। फिर आप अपने काम कब करेंगे।

पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय ।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय ।।

बड़ी बड़ी पुस्तकें पढ़ कर संसार में कितने ही लोग मृत्यु के द्वार पहुँच गए, पर सभी विद्वान न हो सके। कबीर मानते हैं कि यदि कोई प्रेम या प्यार के केवल ढाई अक्षर ही अच्छी तरह पढ़ ले, अर्थात प्रेम का वास्तविक स्वरूप पहचान ले तो वही सच्चा ज्ञानी हो जायेगा।

धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय ।
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय।।

Kabir Das Ke Dohe
Kabir Das Ke Dohe-कबीर दास

कबीर दास जी कहते हैं कि धैर्य का फल मीठा होता है इसलिए हमें धैर्य रखना चाहिए। यदि कोई माली किसी पेड़ को सौ घड़े पानी से सींचने लगे और सोचे कि अभी फल आ जाये तो ऐसा नहीं होगा। फल तो ऋतु अर्थात समय आने पर ही लगेगा। हमें अपने कार्य को परिश्रम से धैर्यपूर्वक करते रहना चाहिए तो समय आने पर हमें अपनी मेहनत का फल अवश्य प्राप्त होगा।

साईं इतना दीजिये, जा मे कुटुम समाय ।
मैं भी भूखा न रहूँ, साधु ना भूखा जाय ॥

कबीर दास जी कहते हैं कि परमात्मा तुम मुझे इतना दो कि जिसमे बस मेरा गुज़ारा चल जाये , मैं खुद भी अपना पेट पाल सकूँ और आने वाले मेहमानो को भी भोजन करा सकूँ।

संत ना छाडै संतई, जो कोटिक मिले असंत।
चन्दन भुवंगा बैठिया, तऊ सीतलता न तजंत ।।

सज्जन व्यक्ति को चाहे करोड़ों दुष्ट पुरुष मिलें फिर भी वह अपने भले स्वभाव को नहीं छोड़ता। जैसे चन्दन के वृक्ष से सांप लिपटे रहते हैं, पर वह अपनी शीतलता नहीं छोड़ता। अर्थात वास्तव में संत वह है जो दुष्ट व्यक्ति की संगति में भी अपने स्वाभाव को न बदले।

अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप,
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप
।।

न तो अधिक बोलना अच्छा है, न ही जरूरत से ज्यादा चुप रहना ही ठीक है। जैसे बहुत अधिक वर्षा भी अच्छी नहीं और बहुत अधिक धूप भी अच्छी नहीं है। अर्थात हमें हर कार्य एक दायरे के अंदर करना चाहिए।जिस किसी भी चीज की अति हानिकारक है वैसे ही उसकी न्यूनता भी अच्छी नहीं है।

मन मैला तन ऊजला बगुला कपटी अंग।
तासों तो कौआ भला तन मन एकही रंग ॥

Kabir Das Ke Dohe
Kabir Das Ke Dohe

बगुले का शरीर तो उज्जवल है पर मन काला है अर्थात कपट से भरा है। उससे तो कौआ भला है जिसका तन मन एक जैसा है और वह किसी को छलता भी नहीं है। अर्थात जो लोग सामने कुछ और पीछे कुछ होते हैं उनसे भले वे लोग होते है सामने और पीछे एक समान होते हैं।

कबीर तन पंछी भया, जहां मन तहां उडी जाइ।
जो जैसी संगती कर, सो तैसा ही फल पाइ ।।

कबीर दास कहते हैं कि संसारी व्यक्ति का शरीर पक्षी बन गया है और जहां उसका मन होता है, शरीर उड़कर वहीं पहुँच जाता है। सच है कि जो जैसा साथ करता है, वह वैसा ही फल पाता है।

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Category: Quotes

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